रविवार, 12 मार्च 2017

बुद्ध ने एक सच कहा था

☑_*बुद्ध ने एक सच्चाई बताई थी:-*__*मरना सभी को है...*__*लेकिन मरना कोई नहीं चाहता...*__*आज परिस्थिति और भी विषम हैं*__*भोजन सभी को चाहिए लेकिन..*__*खेती करना कोई नहीं चाहता*__*पानी सभी को चाहिए लेकिन..*__*पानी बचाना कोई नहीं चाहता..*__*दूध सभी को चाहिए लेकिन ...*__*गाय पालना कोई नहीं चाहता...*__*छाया सभी को चाहिए लेकिन...*__*पेड़ लगाना और उसे*__*जिन्दा रखना कोई नहीं चाहता...*__*बहु सभी को चाहिए पर...*__*बेटी बचाना कोई नहीं चाहता...*__*मेसेज पढ़कर वाह वाह करना सभी जानते हैं*__*लेकिन जागरूकता फैलाने के लिए फॉरवर्ड करना कोई नहीं चाहता...*_*जिम्मेदार नागरिक बनें*●●●●●●०००००००●●●sunil nishad

हिन्दू त्यौहार की होली एक खास

होली रंगों का एक प्रसिद्ध त्योहार है जो हर साल फागुन के महीने में भारत के लोगों द्वारा बड़ी खुशी के साथ मनाया जाता है। ये ढ़ेर सारी मस्ती और खिलवाड़ का त्योहार है खास तौर से बच्चों के लिये जो होली के एक हफ्ते पहले और बाद तक रंगों की मस्ती में डूबे रहते है। हिन्दु धर्म के लोगों द्वारा इसे पूरे भारतवर्ष में मार्च के महीने में मनाया जाता है खासतौर से उत्तर भारत में। सालों से भारत में होली मनाने के पीछे कई सारी कहानीयाँ और पौराणिक कथाएं है। इस उत्सव का अपना महत्व है, हिन्दु मान्यतों के अनुसार होली का पर्व बहुत समय पहले प्राचीन काल से मनाया जा रहा है जब होलिका अपने भाई के पुत्र को मारने के लिये आग में लेकर बैठी और खुद ही जल गई। उस समय एक राजा था हिरण्यकशयप जिसका पुत्र प्रह्लाद था और वो उसको मारना चाहता था क्योंकि वो उसकी पूजा के बजाय भगवान विष्णु की भक्ती करता था। इसी वजह से हिरण्यकशयप ने होलिका को प्रह्लाद को अपनी गोद में लेकर आग में बैठने को कहा जिसमें भक्त प्रह्लाद तो बच गये लेकिन होलिका मारी गई। जबकि, उसकी ये योजना भी असफल हो गई, क्योंकि वो भगवान विष्णु का भक्त था इसलिये प्रभु ने उसकी रक्षा की। षड़यंत्र में होलिका की मृत्यु हुई और प्रह्लाद बच गया। उसी समय से हिन्दु धर्म के लोग इस त्योहार को मना रहे है। होली से ठीक एक दिन पहले होलिका दहन होता है जिसमें लकड़ी, घास और गाय के गोबर से बने ढ़ेर में इंसान अपने आप की बुराई भी इस आग में जलाता है। होलिका दहन के दौरान सभी इसके चारों ओर घूमकर अपने अच्छे स्वास्थय और यश की कामना करते है साथ ही अपने सभी बुराई को इसमें भस्म करते है। इस पर्व में ऐसी मान्यता भी है कि सरसों से शरीर पर मसाज करने पर उसके सारे रोग और बुराई दूर हो जाती है साथ ही साल भर तक सेहत दुरुस्त रहती है। होलिका दहन की अगली सुबह के बाद, लोग रंग-बिरंगी होली को एक साथ मनाने के लिये एक जगह इकठ्ठा हो जाते है। इसकी तैयारी इसके आने से एक हफ्ते पहले ही शुरु हो जाती है, फिर क्या बच्चे और क्या बड़े सभी बेसब्री से इसका इंतजार करते है और इसके लिये ढ़ेर सारी खरीदारी करते। यहाँ तक कि वो एक हफ्ते पहले से ही अपने दोस्तों, पड़ोसियों और प्रियजनों के साथ पिचकारी और रंग भरे गुब्बारों से खेलना शुरु कर देते। इस दिन लोग एक-दूसरे के घर जाकर रंग गुलाल लगाते साथ ही मजेदार पकवानों का आनंद लेते।

ग्रेट ब्रिटेन नही घुमा तो क्या घुमा

जब भी कोई ग्रेट ब्रिटेन जाकर घूमने के बारे में सोचता है तो उसके ज़ेहन में सबसे पहले लंदन, ऑक्सफोर्ड और ब्रिटेन की एकाध जगहों का ही खयाल आता है. लेकिन अगर आप और आगे देखें तो आपको असली एडवेंचर उसके चारों देशों इंग्लैंड, स्कॉटलैंड, वेल्स और उत्तरी आयरलैंड में मिलेगा. इन देशों की प्राकृतिक छटा व संस्कृति एक-दूसरे से बिलकुल अलग है और यहां सभी के लिए कुछ न कुछ है. वास्तव में इसे ग्रेट ब्रिटेन इसलिए कहा जाता है क्योंकि यहां एक से बढ़कर एक महान आकर्षक पर्यटक स्थल हैं. अगर आप सैर-सपाटे के दौरान गिनीचुनी जगहों के अलावा कुछ हटकर अनुभव लेना चाहते हैं तो उन चारों देशों का भ्रमण कीजिए जो मिलकर यूनाइटेड किंगडम बनाते हैं. 1. इंग्लैंड - जहां और भी है लंदन और ऑक्सफोर्ड के अलावा लंदन दुनिया के उन देशों में से एक है जहां सबसे ज्यादा लोग घूमने-फिरने जाते हैं. थेम्स नदी के किनारे बसा यह अद्भुत और चमचमाता शहर अपने गोथि‍क आर्किटेक्चर, बिग बेन और टावर ऑफ लंदन के लिए जाना जाता है. और हां, यह शहर खान-पान के लिए भी मशहूर है. लंदन जा रहे हैं तो वेस्टमिंस्टर ऐबे और बकिंघम पैलेस जाना न भूलें. अगर आपको इंग्लिश पब कल्चर का एक्सपीरियंस लेना है तो थेम्स के किनारे बने मेफ्लवार पब जरूर जाएं. यह पुराने पबों में से एक है हालांकि थोड़ा महंगा जरूर है. अगर आप लंदन से थोड़ा और आगे जाएंगे तो लगभग एक घंटे की दूरी पर बसा है ऑक्सफोर्ड. 'ड्रीमिंग स्पायर्स' के नाम से मशहूर यह शहर 800 सालों से भी ज़्यादा समय से शाही परिवारों व स्कॉलर्स का घर रहा है. यही नहीं सेक्सॉन काल की याद दिलाने वाले खूबसूरत आर्किटेक्चर, आर्ट म्यूज़ि‍यम और लाइब्रेरी देखने के लिए आपको ऑक्सफोर्ड ज़रूर जाना चाहिए. अरे, ज़रा ठहरिए. अभी तो इंग्लैंड का सफर शुरू ही हुआ है. असली इंग्लैंड देखने के लिए अभी लिवरपूल, डेवोन और बाथ जाना ज़रूरी है. लीवरपूल: अगर आप भी बीटल्स के फैन है तो आपका लिवरपूल जाना बनता है. बीटल्स ने मैथ्यू स्ट्रीट 10 पर स्थि‍त द केवर्न क्लब पर अपनी पहली पर्फॉर्मेंस दी थी. आपके लिए अच्छी बात यह है कि इस क्लब में द केवर्न क्लब बीटल्स नाम से एक बैंड है जो बीटल्स की यादें ताज़ा करता है. यही नहीं आपको पूरा एक दिन चाहिए क्योंकि द बीटल्स स्टोरी म्यूज़ि‍यम जाए बिना आपका सफर पूरा नहीं हो सकता. यह म्यूज़ि‍यम आपको बैंड के सदस्यों की ज़िंदगी से रू-ब-रू कराता है. और हां जॉन और पॉल के घर जाना मत भूलिएगा जहां दोनों पले-बड़े थे. इतना ही नहीं लिवरपूल शहर फुटबॉल का भी पर्यायवाची है. लिवरपूल एफसी सिटी बस की खुली छत पर बैठकर पूरा शहर घूमिए और फिर सीधा एनफील्ड स्टेडियम के म्यूजियम जाइए. लेकिन शहर के फुटबॉल फीवर को समझने के लिए खुद उसका अनुभव लेना ज़रूरी है. बेहतर होगा आप लिवरपूल तब जाएं जब एनफील्ड में प्रीमियर लीग मैच चल रहे हों. डेवोन: अगर आर्किटेक्चर से प्यार और इतिहास से लगाव है तो आपको डेवोन जाना चाहिए, जहां एक से बढ़कर एक चर्च हैं. यहां मध्यकाल की याद दिलाने वाला एक्सीटर चर्च, किंग आर्थर का जन्मस्थान टिंटगल कैसल और एडविन लुटियंस द्वारा बनाए गए ड्रोगो कैसल देखने लायक हैं. लेकिन क्राइम क्वीन अगाथा क्रिस्टी के घर जाए बिना डेवोन का सफर अधूरा ही माना जाएगा. डार्टमाउथ में बने अपने हॉलीडे होम ग्रीनवे में अगाथा क्रिस्टी ने डार्ट नदी की ओर देखकर न जाने कितने ही क्राइम नॉवल्स लिख डाले थे. 2.स्कॉटलैंड - बैगपाइप और स्कॉच के अलावा भी है बहुत कुछ

श्री रामचरितमानस सम्पुर्ण सुन्दर कांड

सुन्दर काण्ड श्रीजानकीवल्लभो विजयते श्रीरामचरितमानस ~~~~~~~~ पञ्चम सोपान सुन्दरकाण्ड श्लोक शान्तं शाश्वतमप्रमेयमनघं निर्वाणशान्तिप्रदं ब्रह्माशम्भुफणीन्द्रसेव्यमनिशं वेदान्तवेद्यं विभुम् । रामाख्यं जगदीश्वरं सुरगुरुं मायामनुष्यं हरिं वन्देऽहं करुणाकरं रघुवरं भूपालचूड़ामणिम्।।1।। नान्या स्पृहा रघुपते हृदयेऽस्मदीये सत्यं वदामि च भवानखिलान्तरात्मा। भक्तिं प्रयच्छ रघुपुङ्गव निर्भरां मे कामादिदोषरहितं कुरु मानसं च।।2।। अतुलितबलधामं हेमशैलाभदेहं दनुजवनकृशानुं ज्ञानिनामग्रगण्यम्। सकलगुणनिधानं वानराणामधीशं रघुपतिप्रियभक्तं वातजातं नमामि।।3।। जामवंत के बचन सुहाए। सुनि हनुमंत हृदय अति भाए।। तब लगि मोहि परिखेहु तुम्ह भाई। सहि दुख कंद मूल फल खाई।। जब लगि आवौं सीतहि देखी। होइहि काजु मोहि हरष बिसेषी।। यह कहि नाइ सबन्हि कहुँ माथा। चलेउ हरषि हियँ धरि रघुनाथा।। सिंधु तीर एक भूधर सुंदर। कौतुक कूदि चढ़ेउ ता ऊपर।। बार बार रघुबीर सँभारी। तरकेउ पवनतनय बल भारी।। जेहिं गिरि चरन देइ हनुमंता। चलेउ सो गा पाताल तुरंता।। जिमि अमोघ रघुपति कर बाना। एही भाँति चलेउ हनुमाना।। जलनिधि रघुपति दूत बिचारी। तैं मैनाक होहि श्रमहारी।। दो0- हनूमान तेहि परसा कर पुनि कीन्ह प्रनाम। राम काजु कीन्हें बिनु मोहि कहाँ बिश्राम।।1।। –*–*– जात पवनसुत देवन्ह देखा। जानैं कहुँ बल बुद्धि बिसेषा।। सुरसा नाम अहिन्ह कै माता। पठइन्हि आइ कही तेहिं बाता।। आजु सुरन्ह मोहि दीन्ह अहारा। सुनत बचन कह पवनकुमारा।। राम काजु करि फिरि मैं आवौं। सीता कइ सुधि प्रभुहि सुनावौं।। तब तव बदन पैठिहउँ आई। सत्य कहउँ मोहि जान दे माई।। कबनेहुँ जतन देइ नहिं जाना। ग्रससि न मोहि कहेउ हनुमाना।। जोजन भरि तेहिं बदनु पसारा। कपि तनु कीन्ह दुगुन बिस्तारा।। सोरह जोजन मुख तेहिं ठयऊ। तुरत पवनसुत बत्तिस भयऊ।। जस जस सुरसा बदनु बढ़ावा। तासु दून कपि रूप देखावा।। सत जोजन तेहिं आनन कीन्हा। अति लघु रूप पवनसुत लीन्हा।। बदन पइठि पुनि बाहेर आवा। मागा बिदा ताहि सिरु नावा।। मोहि सुरन्ह जेहि लागि पठावा। बुधि बल मरमु तोर मै पावा।। दो0-राम काजु सबु करिहहु तुम्ह बल बुद्धि निधान। आसिष देह गई सो हरषि चलेउ हनुमान।।2।। –*–*– निसिचरि एक सिंधु महुँ रहई। करि माया नभु के खग गहई।। जीव जंतु जे गगन उड़ाहीं। जल बिलोकि तिन्ह कै परिछाहीं।। गहइ छाहँ सक सो न उड़ाई। एहि बिधि सदा गगनचर खाई।। सोइ छल हनूमान कहँ कीन्हा। तासु कपटु कपि तुरतहिं चीन्हा।। ताहि मारि मारुतसुत बीरा। बारिधि पार गयउ मतिधीरा।। तहाँ जाइ देखी बन सोभा। गुंजत चंचरीक मधु लोभा।। नाना तरु फल फूल सुहाए। खग मृग बृंद देखि मन भाए।। सैल बिसाल देखि एक आगें। ता पर धाइ चढेउ भय त्यागें।। उमा न कछु कपि कै अधिकाई। प्रभु प्रताप जो कालहि खाई।। गिरि पर चढि लंका तेहिं देखी। कहि न जाइ अति दुर्ग बिसेषी।। अति उतंग जलनिधि चहु पासा। कनक कोट कर परम प्रकासा।। छं=कनक कोट बिचित्र मनि कृत सुंदरायतना घना। चउहट्ट हट्ट सुबट्ट बीथीं चारु पुर बहु बिधि बना।। गज बाजि खच्चर निकर पदचर रथ बरूथिन्ह को गनै।। बहुरूप निसिचर जूथ अतिबल सेन बरनत नहिं बनै।।1।। बन बाग उपबन बाटिका सर कूप बापीं सोहहीं। नर नाग सुर गंधर्ब कन्या रूप मुनि मन मोहहीं।। कहुँ माल देह बिसाल सैल समान अतिबल गर्जहीं। नाना अखारेन्ह भिरहिं बहु बिधि एक एकन्ह तर्जहीं।।2।। करि जतन भट कोटिन्ह बिकट तन नगर चहुँ दिसि रच्छहीं। कहुँ महिष मानषु धेनु खर अज खल निसाचर भच्छहीं।। एहि लागि तुलसीदास इन्ह की कथा कछु एक है कही। रघुबीर सर तीरथ सरीरन्हि त्यागि गति पैहहिं सही।।3।। दो0-पुर रखवारे देखि बहु कपि मन कीन्ह बिचार। अति लघु रूप धरौं निसि नगर करौं पइसार।।3।। –*–*– मसक समान रूप कपि धरी। लंकहि चलेउ सुमिरि नरहरी।। नाम लंकिनी एक निसिचरी। सो कह चलेसि मोहि निंदरी।। जानेहि नहीं मरमु सठ मोरा। मोर अहार जहाँ लगि चोरा।। मुठिका एक महा कपि हनी। रुधिर बमत धरनीं ढनमनी।। पुनि संभारि उठि सो लंका। जोरि पानि कर बिनय संसका।। जब रावनहि ब्रह्म बर दीन्हा। चलत बिरंचि कहा मोहि चीन्हा।। बिकल होसि तैं कपि कें मारे। तब जानेसु निसिचर संघारे।। तात मोर अति पुन्य बहूता। देखेउँ नयन राम कर दूता।। दो0-तात स्वर्ग अपबर्ग सुख धरिअ तुला एक अंग। तूल न ताहि सकल मिलि जो सुख लव सतसंग।।4।। –*–*– प्रबिसि नगर कीजे सब काजा। हृदयँ राखि कौसलपुर राजा।। गरल सुधा रिपु करहिं मिताई। गोपद सिंधु अनल सितलाई।। गरुड़ सुमेरु रेनू सम ताही। राम कृपा करि चितवा जाही।। अति लघु रूप धरेउ हनुमाना। पैठा नगर सुमिरि भगवाना।। मंदिर मंदिर प्रति करि सोधा। देखे जहँ तहँ अगनित जोधा।। गयउ दसानन मंदिर माहीं। अति बिचित्र कहि जात सो नाहीं।। सयन किए देखा कपि तेही। मंदिर महुँ न दीखि बैदेही।। भवन एक पुनि दीख सुहावा। हरि मंदिर तहँ भिन्न बनावा।। दो0-रामायुध अंकित गृह सोभा बरनि न जाइ। नव तुलसिका बृंद तहँ देखि हरषि कपिराइ।।5।। –*–*– लंका निसिचर निकर निवासा। इहाँ कहाँ सज्जन कर बासा।। मन महुँ तरक करै कपि लागा। तेहीं समय बिभीषनु जागा।। राम राम तेहिं सुमिरन कीन्हा। हृदयँ हरष कपि सज्जन चीन्हा।। एहि सन हठि करिहउँ पहिचानी। साधु ते होइ न कारज हानी।। बिप्र रुप धरि बचन सुनाए। सुनत बिभीषण उठि तहँ आए।। करि प्रनाम पूँछी कुसलाई। बिप्र कहहु निज कथा बुझाई।। की तुम्ह हरि दासन्ह महँ कोई। मोरें हृदय प्रीति अति होई।। की तुम्ह रामु दीन अनुरागी। आयहु मोहि करन बड़भागी।। दो0-तब हनुमंत कही सब राम कथा निज नाम। सुनत जुगल तन पुलक मन मगन सुमिरि गुन ग्राम।।6।। –*–*– सुनहु पवनसुत रहनि हमारी। जिमि दसनन्हि महुँ जीभ बिचारी।। तात कबहुँ मोहि जानि अनाथा। करिहहिं कृपा भानुकुल नाथा।। तामस तनु कछु साधन नाहीं। प्रीति न पद सरोज मन माहीं।। अब मोहि भा भरोस हनुमंता। बिनु हरिकृपा मिलहिं नहिं संता।। जौ रघुबीर अनुग्रह कीन्हा। तौ तुम्ह मोहि दरसु हठि दीन्हा।। सुनहु बिभीषन प्रभु कै रीती। करहिं सदा सेवक पर प्रीती।। कहहु कवन मैं परम कुलीना। कपि चंचल सबहीं बिधि हीना।। प्रात लेइ जो नाम हमारा। तेहि दिन ताहि न मिलै अहारा।। दो0-अस मैं अधम सखा सुनु मोहू पर रघुबीर। कीन्ही कृपा सुमिरि गुन भरे बिलोचन नीर।।7।। –*–*– जानतहूँ अस स्वामि बिसारी। फिरहिं ते काहे न होहिं दुखारी।। एहि बिधि कहत राम गुन ग्रामा। पावा अनिर्बाच्य बिश्रामा।। पुनि सब कथा बिभीषन कही। जेहि बिधि जनकसुता तहँ रही।। तब हनुमंत कहा सुनु भ्राता। देखी चहउँ जानकी माता।। जुगुति बिभीषन सकल सुनाई। चलेउ पवनसुत बिदा कराई।। करि सोइ रूप गयउ पुनि तहवाँ। बन असोक सीता रह जहवाँ।। देखि मनहि महुँ कीन्ह प्रनामा। बैठेहिं बीति जात निसि जामा।। कृस तन सीस जटा एक बेनी। जपति हृदयँ रघुपति गुन श्रेनी।। दो0-निज पद नयन दिएँ मन राम पद कमल लीन। परम दुखी भा पवनसुत देखि जानकी दीन।।8।। –*–*– तरु पल्लव महुँ रहा लुकाई। करइ बिचार करौं का भाई।। तेहि अवसर रावनु तहँ आवा। संग नारि बहु किएँ बनावा।। बहु बिधि खल सीतहि समुझावा। साम दान भय भेद देखावा।। कह रावनु सुनु सुमुखि सयानी। मंदोदरी आदि सब रानी।। तव अनुचरीं करउँ पन मोरा। एक बार बिलोकु मम ओरा।। तृन धरि ओट कहति बैदेही। सुमिरि अवधपति परम सनेही।। सुनु दसमुख खद्योत प्रकासा। कबहुँ कि नलिनी करइ बिकासा।। अस मन समुझु कहति जानकी। खल सुधि नहिं रघुबीर बान की।। सठ सूने हरि आनेहि मोहि। अधम निलज्ज लाज नहिं तोही।। दो0- आपुहि सुनि खद्योत सम रामहि भानु समान। परुष बचन सुनि काढ़ि असि बोला अति खिसिआन।।9।। –*–*– सीता तैं मम कृत अपमाना। कटिहउँ तव सिर कठिन कृपाना।। नाहिं त सपदि मानु मम बानी। सुमुखि होति न त जीवन हानी।। स्याम सरोज दाम सम सुंदर। प्रभु भुज करि कर सम दसकंधर।। सो भुज कंठ कि तव असि घोरा। सुनु सठ अस प्रवान पन मोरा।। चंद्रहास हरु मम परितापं। रघुपति बिरह अनल संजातं।। सीतल निसित बहसि बर धारा। कह सीता हरु मम दुख भारा।। सुनत बचन पुनि मारन धावा। मयतनयाँ कहि नीति बुझावा।। कहेसि सकल निसिचरिन्ह बोलाई। सीतहि बहु बिधि त्रासहु जाई।। मास दिवस महुँ कहा न माना। तौ मैं मारबि काढ़ि कृपाना।। दो0-भवन गयउ दसकंधर इहाँ पिसाचिनि बृंद। सीतहि त्रास देखावहि धरहिं रूप बहु मंद।।10।। –*–*– त्रिजटा नाम राच्छसी एका। राम चरन रति निपुन बिबेका।। सबन्हौ बोलि सुनाएसि सपना। सीतहि सेइ करहु हित अपना।। सपनें बानर लंका जारी। जातुधान सेना सब मारी।। खर आरूढ़ नगन दससीसा। मुंडित सिर खंडित भुज बीसा।। एहि बिधि सो दच्छिन दिसि जाई। लंका मनहुँ बिभीषन पाई।। नगर फिरी रघुबीर दोहाई। तब प्रभु सीता बोलि पठाई।। यह सपना में कहउँ पुकारी। होइहि सत्य गएँ दिन चारी।। तासु बचन सुनि ते सब डरीं। जनकसुता के चरनन्हि परीं।। दो0-जहँ तहँ गईं सकल तब सीता कर मन सोच। मास दिवस बीतें मोहि मारिहि निसिचर पोच।।11।। –*–*– त्रिजटा सन बोली कर जोरी। मातु बिपति संगिनि तैं मोरी।। तजौं देह करु बेगि उपाई। दुसहु बिरहु अब नहिं सहि जाई।। आनि काठ रचु चिता बनाई। मातु अनल पुनि देहि लगाई।। सत्य करहि मम प्रीति सयानी। सुनै को श्रवन सूल सम बानी।। सुनत बचन पद गहि समुझाएसि। प्रभु प्रताप बल सुजसु सुनाएसि।। निसि न अनल मिल सुनु सुकुमारी। अस कहि सो निज भवन सिधारी।। कह सीता बिधि भा प्रतिकूला। मिलहि न पावक मिटिहि न सूला।। देखिअत प्रगट गगन अंगारा। अवनि न आवत एकउ तारा।। पावकमय ससि स्त्रवत न आगी। मानहुँ मोहि जानि हतभागी।। सुनहि बिनय मम बिटप असोका। सत्य नाम करु हरु मम सोका।। नूतन किसलय अनल समाना। देहि अगिनि जनि करहि निदाना।। देखि परम बिरहाकुल सीता। सो छन कपिहि कलप सम बीता।। सो0-कपि करि हृदयँ बिचार दीन्हि मुद्रिका डारी तब। जनु असोक अंगार दीन्हि हरषि उठि कर गहेउ।।12।। तब देखी मुद्रिका मनोहर। राम नाम अंकित अति सुंदर।। चकित चितव मुदरी पहिचानी। हरष बिषाद हृदयँ अकुलानी।। जीति को सकइ अजय रघुराई। माया तें असि रचि नहिं जाई।। सीता मन बिचार कर नाना। मधुर बचन बोलेउ हनुमाना।। रामचंद्र गुन बरनैं लागा। सुनतहिं सीता कर दुख भागा।। लागीं सुनैं श्रवन मन लाई। आदिहु तें सब कथा सुनाई।। श्रवनामृत जेहिं कथा सुहाई। कहि सो प्रगट होति किन भाई।। तब हनुमंत निकट चलि गयऊ। फिरि बैंठीं मन बिसमय भयऊ।। राम दूत मैं मातु जानकी। सत्य सपथ करुनानिधान की।। यह मुद्रिका मातु मैं आनी। दीन्हि राम तुम्ह कहँ सहिदानी।। नर बानरहि संग कहु कैसें। कहि कथा भइ संगति जैसें।। दो0-कपि के बचन सप्रेम सुनि उपजा मन बिस्वास।। जाना मन क्रम बचन यह कृपासिंधु कर दास।।13।। –*–*– हरिजन जानि प्रीति अति गाढ़ी। सजल नयन पुलकावलि बाढ़ी।। बूड़त बिरह जलधि हनुमाना। भयउ तात मों कहुँ जलजाना।। अब कहु कुसल जाउँ बलिहारी। अनुज सहित सुख भवन खरारी।। कोमलचित कृपाल रघुराई। कपि केहि हेतु धरी निठुराई।। सहज बानि सेवक सुख दायक। कबहुँक सुरति करत रघुनायक।। कबहुँ नयन मम सीतल ताता। होइहहि निरखि स्याम मृदु गाता।। बचनु न आव नयन भरे बारी। अहह नाथ हौं निपट बिसारी।। देखि परम बिरहाकुल सीता। बोला कपि मृदु बचन बिनीता।। मातु कुसल प्रभु अनुज समेता। तव दुख दुखी सुकृपा निकेता।। जनि जननी मानहु जियँ ऊना। तुम्ह ते प्रेमु राम कें दूना।। दो0-रघुपति कर संदेसु अब सुनु जननी धरि धीर। अस कहि कपि गद गद भयउ भरे बिलोचन नीर।।14।। –*–*– कहेउ राम बियोग तव सीता। मो कहुँ सकल भए बिपरीता।। नव तरु किसलय मनहुँ कृसानू। कालनिसा सम निसि ससि भानू।। कुबलय बिपिन कुंत बन सरिसा। बारिद तपत तेल जनु बरिसा।। जे हित रहे करत तेइ पीरा। उरग स्वास सम त्रिबिध समीरा।। कहेहू तें कछु दुख घटि होई। काहि कहौं यह जान न कोई।। तत्व प्रेम कर मम अरु तोरा। जानत प्रिया एकु मनु मोरा।। सो मनु सदा रहत तोहि पाहीं। जानु प्रीति रसु एतेनहि माहीं।। प्रभु संदेसु सुनत बैदेही। मगन प्रेम तन सुधि नहिं तेही।। कह कपि हृदयँ धीर धरु माता। सुमिरु राम सेवक सुखदाता।। उर आनहु रघुपति प्रभुताई। सुनि मम बचन तजहु कदराई।। दो0-निसिचर निकर पतंग सम रघुपति बान कृसानु। जननी हृदयँ धीर धरु जरे निसाचर जानु।।15।। –*–*– जौं रघुबीर होति सुधि पाई। करते नहिं बिलंबु रघुराई।। रामबान रबि उएँ जानकी। तम बरूथ कहँ जातुधान की।। अबहिं मातु मैं जाउँ लवाई। प्रभु आयसु नहिं राम दोहाई।। कछुक दिवस जननी धरु धीरा। कपिन्ह सहित अइहहिं रघुबीरा।। निसिचर मारि तोहि लै जैहहिं। तिहुँ पुर नारदादि जसु गैहहिं।। हैं सुत कपि सब तुम्हहि समाना। जातुधान अति भट बलवाना।। मोरें हृदय परम संदेहा। सुनि कपि प्रगट कीन्ह निज देहा।। कनक भूधराकार सरीरा। समर भयंकर अतिबल बीरा।। सीता मन भरोस तब भयऊ। पुनि लघु रूप पवनसुत लयऊ।। दो0-सुनु माता साखामृग नहिं बल बुद्धि बिसाल। प्रभु प्रताप तें गरुड़हि खाइ परम लघु ब्याल।।16।। –*–*– मन संतोष सुनत कपि बानी। भगति प्रताप तेज बल सानी।। आसिष दीन्हि रामप्रिय जाना। होहु तात बल सील निधाना।। अजर अमर गुननिधि सुत होहू। करहुँ बहुत रघुनायक छोहू।। करहुँ कृपा प्रभु अस सुनि काना। निर्भर प्रेम मगन हनुमाना।। बार बार नाएसि पद सीसा। बोला बचन जोरि कर कीसा।। अब कृतकृत्य भयउँ मैं माता। आसिष तव अमोघ बिख्याता।। सुनहु मातु मोहि अतिसय भूखा। लागि देखि सुंदर फल रूखा।। सुनु सुत करहिं बिपिन रखवारी। परम सुभट रजनीचर भारी।। तिन्ह कर भय माता मोहि नाहीं। जौं तुम्ह सुख मानहु मन माहीं।। दो0-देखि बुद्धि बल निपुन कपि कहेउ जानकीं जाहु। रघुपति चरन हृदयँ धरि तात मधुर फल खाहु।।17।। –*–*– चलेउ नाइ सिरु पैठेउ बागा। फल खाएसि तरु तोरैं लागा।। रहे तहाँ बहु भट रखवारे। कछु मारेसि कछु जाइ पुकारे।। नाथ एक आवा कपि भारी। तेहिं असोक बाटिका उजारी।। खाएसि फल अरु बिटप उपारे। रच्छक मर्दि मर्दि महि डारे।। सुनि रावन पठए भट नाना। तिन्हहि देखि गर्जेउ हनुमाना।। सब रजनीचर कपि संघारे। गए पुकारत कछु अधमारे।। पुनि पठयउ तेहिं अच्छकुमारा। चला संग लै सुभट अपारा।। आवत देखि बिटप गहि तर्जा। ताहि निपाति महाधुनि गर्जा।। दो0-कछु मारेसि कछु मर्देसि कछु मिलएसि धरि धूरि। कछु पुनि जाइ पुकारे प्रभु मर्कट बल भूरि।।18।। –*–*– सुनि सुत बध लंकेस रिसाना। पठएसि मेघनाद बलवाना।। मारसि जनि सुत बांधेसु ताही। देखिअ कपिहि कहाँ कर आही।। चला इंद्रजित अतुलित जोधा। बंधु निधन सुनि उपजा क्रोधा।। कपि देखा दारुन भट आवा। कटकटाइ गर्जा अरु धावा।। अति बिसाल तरु एक उपारा। बिरथ कीन्ह लंकेस कुमारा।। रहे महाभट ताके संगा। गहि गहि कपि मर्दइ निज अंगा।। तिन्हहि निपाति ताहि सन बाजा। भिरे जुगल मानहुँ गजराजा। मुठिका मारि चढ़ा तरु जाई। ताहि एक छन मुरुछा आई।। उठि बहोरि कीन्हिसि बहु माया। जीति न जाइ प्रभंजन जाया।। दो0-ब्रह्म अस्त्र तेहिं साँधा कपि मन कीन्ह बिचार। जौं न ब्रह्मसर मानउँ महिमा मिटइ अपार।।19।। –*–*– ब्रह्मबान कपि कहुँ तेहि मारा। परतिहुँ बार कटकु संघारा।। तेहि देखा कपि मुरुछित भयऊ। नागपास बाँधेसि लै गयऊ।। जासु नाम जपि सुनहु भवानी। भव बंधन काटहिं नर ग्यानी।। तासु दूत कि बंध तरु आवा। प्रभु कारज लगि कपिहिं बँधावा।। कपि बंधन सुनि निसिचर धाए। कौतुक लागि सभाँ सब आए।। दसमुख सभा दीखि कपि जाई। कहि न जाइ कछु अति प्रभुताई।। कर जोरें सुर दिसिप बिनीता। भृकुटि बिलोकत सकल सभीता।। देखि प्रताप न कपि मन संका। जिमि अहिगन महुँ गरुड़ असंका।। दो0-कपिहि बिलोकि दसानन बिहसा कहि दुर्बाद। सुत बध सुरति कीन्हि पुनि उपजा हृदयँ बिषाद।।20।। –*–*– कह लंकेस कवन तैं कीसा। केहिं के बल घालेहि बन खीसा।। की धौं श्रवन सुनेहि नहिं मोही। देखउँ अति असंक सठ तोही।। मारे निसिचर केहिं अपराधा। कहु सठ तोहि न प्रान कइ बाधा।। सुन रावन ब्रह्मांड निकाया। पाइ जासु बल बिरचित माया।। जाकें बल बिरंचि हरि ईसा। पालत सृजत हरत दससीसा। जा बल सीस धरत सहसानन। अंडकोस समेत गिरि कानन।। धरइ जो बिबिध देह सुरत्राता। तुम्ह ते सठन्ह सिखावनु दाता। हर कोदंड कठिन जेहि भंजा। तेहि समेत नृप दल मद गंजा।। खर दूषन त्रिसिरा अरु बाली। बधे सकल अतुलित बलसाली।। दो0-जाके बल लवलेस तें जितेहु चराचर झारि। तासु दूत मैं जा करि हरि आनेहु प्रिय नारि।।21।। –*–*– जानउँ मैं तुम्हारि प्रभुताई। सहसबाहु सन परी लराई।। समर बालि सन करि जसु पावा। सुनि कपि बचन बिहसि बिहरावा।। खायउँ फल प्रभु लागी भूँखा। कपि सुभाव तें तोरेउँ रूखा।। सब कें देह परम प्रिय स्वामी। मारहिं मोहि कुमारग गामी।। जिन्ह मोहि मारा ते मैं मारे। तेहि पर बाँधेउ तनयँ तुम्हारे।। मोहि न कछु बाँधे कइ लाजा। कीन्ह चहउँ निज प्रभु कर काजा।। बिनती करउँ जोरि कर रावन। सुनहु मान तजि मोर सिखावन।। देखहु तुम्ह निज कुलहि बिचारी। भ्रम तजि भजहु भगत भय हारी।। जाकें डर अति काल डेराई। जो सुर असुर चराचर खाई।। तासों बयरु कबहुँ नहिं कीजै। मोरे कहें जानकी दीजै।। दो0-प्रनतपाल रघुनायक करुना सिंधु खरारि। गएँ सरन प्रभु राखिहैं तव अपराध बिसारि।।22।। –*–*– राम चरन पंकज उर धरहू। लंका अचल राज तुम्ह करहू।। रिषि पुलिस्त जसु बिमल मंयका। तेहि ससि महुँ जनि होहु कलंका।। राम नाम बिनु गिरा न सोहा। देखु बिचारि त्यागि मद मोहा।। बसन हीन नहिं सोह सुरारी। सब भूषण भूषित बर नारी।। राम बिमुख संपति प्रभुताई। जाइ रही पाई बिनु पाई।। सजल मूल जिन्ह सरितन्ह नाहीं। बरषि गए पुनि तबहिं सुखाहीं।। सुनु दसकंठ कहउँ पन रोपी। बिमुख राम त्राता नहिं कोपी।। संकर सहस बिष्नु अज तोही। सकहिं न राखि राम कर द्रोही।। दो0-मोहमूल बहु सूल प्रद त्यागहु तम अभिमान। भजहु राम रघुनायक कृपा सिंधु भगवान।।23।। –*–*– जदपि कहि कपि अति हित बानी। भगति बिबेक बिरति नय सानी।। बोला बिहसि महा अभिमानी। मिला हमहि कपि गुर बड़ ग्यानी।। मृत्यु निकट आई खल तोही। लागेसि अधम सिखावन मोही।। उलटा होइहि कह हनुमाना। मतिभ्रम तोर प्रगट मैं जाना।। सुनि कपि बचन बहुत खिसिआना। बेगि न हरहुँ मूढ़ कर प्राना।। सुनत निसाचर मारन धाए। सचिवन्ह सहित बिभीषनु आए। नाइ सीस करि बिनय बहूता। नीति बिरोध न मारिअ दूता।। आन दंड कछु करिअ गोसाँई। सबहीं कहा मंत्र भल भाई।। सुनत बिहसि बोला दसकंधर। अंग भंग करि पठइअ बंदर।। दो-कपि कें ममता पूँछ पर सबहि कहउँ समुझाइ। तेल बोरि पट बाँधि पुनि पावक देहु लगाइ।।24।। पूँछहीन बानर तहँ जाइहि। तब सठ निज नाथहि लइ आइहि।। जिन्ह कै कीन्हसि बहुत बड़ाई। देखेउँûमैं तिन्ह कै प्रभुताई।। बचन सुनत कपि मन मुसुकाना। भइ सहाय सारद मैं जाना।। जातुधान सुनि रावन बचना। लागे रचैं मूढ़ सोइ रचना।। रहा न नगर बसन घृत तेला। बाढ़ी पूँछ कीन्ह कपि खेला।। कौतुक कहँ आए पुरबासी। मारहिं चरन करहिं बहु हाँसी।। बाजहिं ढोल देहिं सब तारी। नगर फेरि पुनि पूँछ प्रजारी।। पावक जरत देखि हनुमंता। भयउ परम लघु रुप तुरंता।। निबुकि चढ़ेउ कपि कनक अटारीं। भई सभीत निसाचर नारीं।। दो0-हरि प्रेरित तेहि अवसर चले मरुत उनचास। अट्टहास करि गर्जéा कपि बढ़ि लाग अकास।।25।। –*–*– देह बिसाल परम हरुआई। मंदिर तें मंदिर चढ़ धाई।। जरइ नगर भा लोग बिहाला। झपट लपट बहु कोटि कराला।। तात मातु हा सुनिअ पुकारा। एहि अवसर को हमहि उबारा।। हम जो कहा यह कपि नहिं होई। बानर रूप धरें सुर कोई।। साधु अवग्या कर फलु ऐसा। जरइ नगर अनाथ कर जैसा।। जारा नगरु निमिष एक माहीं। एक बिभीषन कर गृह नाहीं।। ता कर दूत अनल जेहिं सिरिजा। जरा न सो तेहि कारन गिरिजा।। उलटि पलटि लंका सब जारी। कूदि परा पुनि सिंधु मझारी।। दो0-पूँछ बुझाइ खोइ श्रम धरि लघु रूप बहोरि। जनकसुता के आगें ठाढ़ भयउ कर जोरि।।26।। –*–*– मातु मोहि दीजे कछु चीन्हा। जैसें रघुनायक मोहि दीन्हा।। चूड़ामनि उतारि तब दयऊ। हरष समेत पवनसुत लयऊ।। कहेहु तात अस मोर प्रनामा। सब प्रकार प्रभु पूरनकामा।। दीन दयाल बिरिदु संभारी। हरहु नाथ मम संकट भारी।। तात सक्रसुत कथा सुनाएहु। बान प्रताप प्रभुहि समुझाएहु।। मास दिवस महुँ नाथु न आवा। तौ पुनि मोहि जिअत नहिं पावा।। कहु कपि केहि बिधि राखौं प्राना। तुम्हहू तात कहत अब जाना।। तोहि देखि सीतलि भइ छाती। पुनि मो कहुँ सोइ दिनु सो राती।। दो0-जनकसुतहि समुझाइ करि बहु बिधि धीरजु दीन्ह। चरन कमल सिरु नाइ कपि गवनु राम पहिं कीन्ह।।27।। –*–*– चलत महाधुनि गर्जेसि भारी। गर्भ स्त्रवहिं सुनि निसिचर नारी।। नाघि सिंधु एहि पारहि आवा। सबद किलकिला कपिन्ह सुनावा।। हरषे सब बिलोकि हनुमाना। नूतन जन्म कपिन्ह तब जाना।। मुख प्रसन्न तन तेज बिराजा। कीन्हेसि रामचन्द्र कर काजा।। मिले सकल अति भए सुखारी। तलफत मीन पाव जिमि बारी।। चले हरषि रघुनायक पासा। पूँछत कहत नवल इतिहासा।। तब मधुबन भीतर सब आए। अंगद संमत मधु फल खाए।। रखवारे जब बरजन लागे। मुष्टि प्रहार हनत सब भागे।। दो0-जाइ पुकारे ते सब बन उजार जुबराज। सुनि सुग्रीव हरष कपि करि आए प्रभु काज।।28।। –*–*– जौं न होति सीता सुधि पाई। मधुबन के फल सकहिं कि खाई।। एहि बिधि मन बिचार कर राजा। आइ गए कपि सहित समाजा।। आइ सबन्हि नावा पद सीसा। मिलेउ सबन्हि अति प्रेम कपीसा।। पूँछी कुसल कुसल पद देखी। राम कृपाँ भा काजु बिसेषी।। नाथ काजु कीन्हेउ हनुमाना। राखे सकल कपिन्ह के प्राना।। सुनि सुग्रीव बहुरि तेहि मिलेऊ। कपिन्ह सहित रघुपति पहिं चलेऊ। राम कपिन्ह जब आवत देखा। किएँ काजु मन हरष बिसेषा।। फटिक सिला बैठे द्वौ भाई। परे सकल कपि चरनन्हि जाई।। दो0-प्रीति सहित सब भेटे रघुपति करुना पुंज। पूँछी कुसल नाथ अब कुसल देखि पद कंज।।29।। –*–*– जामवंत कह सुनु रघुराया। जा पर नाथ करहु तुम्ह दाया।। ताहि सदा सुभ कुसल निरंतर। सुर नर मुनि प्रसन्न ता ऊपर।। सोइ बिजई बिनई गुन सागर। तासु सुजसु त्रेलोक उजागर।। प्रभु कीं कृपा भयउ सबु काजू। जन्म हमार सुफल भा आजू।। नाथ पवनसुत कीन्हि जो करनी। सहसहुँ मुख न जाइ सो बरनी।। पवनतनय के चरित सुहाए। जामवंत रघुपतिहि सुनाए।। सुनत कृपानिधि मन अति भाए। पुनि हनुमान हरषि हियँ लाए।। कहहु तात केहि भाँति जानकी। रहति करति रच्छा स्वप्रान की।। दो0-नाम पाहरु दिवस निसि ध्यान तुम्हार कपाट। लोचन निज पद जंत्रित जाहिं प्रान केहिं बाट।।30।। –*–*– चलत मोहि चूड़ामनि दीन्ही। रघुपति हृदयँ लाइ सोइ लीन्ही।। नाथ जुगल लोचन भरि बारी। बचन कहे कछु जनककुमारी।। अनुज समेत गहेहु प्रभु चरना। दीन बंधु प्रनतारति हरना।। मन क्रम बचन चरन अनुरागी। केहि अपराध नाथ हौं त्यागी।। अवगुन एक मोर मैं माना। बिछुरत प्रान न कीन्ह पयाना।। नाथ सो नयनन्हि को अपराधा। निसरत प्रान करिहिं हठि बाधा।। बिरह अगिनि तनु तूल समीरा। स्वास जरइ छन माहिं सरीरा।। नयन स्त्रवहि जलु निज हित लागी। जरैं न पाव देह बिरहागी। सीता के अति बिपति बिसाला। बिनहिं कहें भलि दीनदयाला।। दो0-निमिष निमिष करुनानिधि जाहिं कलप सम बीति। बेगि चलिय प्रभु आनिअ भुज बल खल दल जीति।।31।। –*–*– सुनि सीता दुख प्रभु सुख अयना। भरि आए जल राजिव नयना।। बचन काँय मन मम गति जाही। सपनेहुँ बूझिअ बिपति कि ताही।। कह हनुमंत बिपति प्रभु सोई। जब तव सुमिरन भजन न होई।। केतिक बात प्रभु जातुधान की। रिपुहि जीति आनिबी जानकी।। सुनु कपि तोहि समान उपकारी। नहिं कोउ सुर नर मुनि तनुधारी।। प्रति उपकार करौं का तोरा। सनमुख होइ न सकत मन मोरा।। सुनु सुत उरिन मैं नाहीं। देखेउँ करि बिचार मन माहीं।। पुनि पुनि कपिहि चितव सुरत्राता। लोचन नीर पुलक अति गाता।। दो0-सुनि प्रभु बचन बिलोकि मुख गात हरषि हनुमंत। चरन परेउ प्रेमाकुल त्राहि त्राहि भगवंत।।32।। –*–*– बार बार प्रभु चहइ उठावा। प्रेम मगन तेहि उठब न भावा।। प्रभु कर पंकज कपि कें सीसा। सुमिरि सो दसा मगन गौरीसा।। सावधान मन करि पुनि संकर। लागे कहन कथा अति सुंदर।। कपि उठाइ प्रभु हृदयँ लगावा। कर गहि परम निकट बैठावा।। कहु कपि रावन पालित लंका। केहि बिधि दहेउ दुर्ग अति बंका।। प्रभु प्रसन्न जाना हनुमाना। बोला बचन बिगत अभिमाना।। साखामृग के बड़ि मनुसाई। साखा तें साखा पर जाई।। नाघि सिंधु हाटकपुर जारा। निसिचर गन बिधि बिपिन उजारा। सो सब तव प्रताप रघुराई। नाथ न कछू मोरि प्रभुताई।। दो0- ता कहुँ प्रभु कछु अगम नहिं जा पर तुम्ह अनुकुल। तब प्रभावँ बड़वानलहिं जारि सकइ खलु तूल।।33।। –*–*– नाथ भगति अति सुखदायनी। देहु कृपा करि अनपायनी।। सुनि प्रभु परम सरल कपि बानी। एवमस्तु तब कहेउ भवानी।। उमा राम सुभाउ जेहिं जाना। ताहि भजनु तजि भाव न आना।। यह संवाद जासु उर आवा। रघुपति चरन भगति सोइ पावा।। सुनि प्रभु बचन कहहिं कपिबृंदा। जय जय जय कृपाल सुखकंदा।। तब रघुपति कपिपतिहि बोलावा। कहा चलैं कर करहु बनावा।। अब बिलंबु केहि कारन कीजे। तुरत कपिन्ह कहुँ आयसु दीजे।। कौतुक देखि सुमन बहु बरषी। नभ तें भवन चले सुर हरषी।। दो0-कपिपति बेगि बोलाए आए जूथप जूथ। नाना बरन अतुल बल बानर भालु बरूथ।।34।। –*–*– प्रभु पद पंकज नावहिं सीसा। गरजहिं भालु महाबल कीसा।। देखी राम सकल कपि सेना। चितइ कृपा करि राजिव नैना।। राम कृपा बल पाइ कपिंदा। भए पच्छजुत मनहुँ गिरिंदा।। हरषि राम तब कीन्ह पयाना। सगुन भए सुंदर सुभ नाना।। जासु सकल मंगलमय कीती। तासु पयान सगुन यह नीती।। प्रभु पयान जाना बैदेहीं। फरकि बाम अँग जनु कहि देहीं।। जोइ जोइ सगुन जानकिहि होई। असगुन भयउ रावनहि सोई।। चला कटकु को बरनैं पारा। गर्जहि बानर भालु अपारा।। नख आयुध गिरि पादपधारी। चले गगन महि इच्छाचारी।। केहरिनाद भालु कपि करहीं। डगमगाहिं दिग्गज चिक्करहीं।। छं0-चिक्करहिं दिग्गज डोल महि गिरि लोल सागर खरभरे। मन हरष सभ गंधर्ब सुर मुनि नाग किन्नर दुख टरे।। कटकटहिं मर्कट बिकट भट बहु कोटि कोटिन्ह धावहीं। जय राम प्रबल प्रताप कोसलनाथ गुन गन गावहीं।।1।। सहि सक न भार उदार अहिपति बार बारहिं मोहई। गह दसन पुनि पुनि कमठ पृष्ट कठोर सो किमि सोहई।। रघुबीर रुचिर प्रयान प्रस्थिति जानि परम सुहावनी। जनु कमठ खर्पर सर्पराज सो लिखत अबिचल पावनी।।2।। दो0-एहि बिधि जाइ कृपानिधि उतरे सागर तीर। जहँ तहँ लागे खान फल भालु बिपुल कपि बीर।।35।। –*–*– उहाँ निसाचर रहहिं ससंका। जब ते जारि गयउ कपि लंका।। निज निज गृहँ सब करहिं बिचारा। नहिं निसिचर कुल केर उबारा।। जासु दूत बल बरनि न जाई। तेहि आएँ पुर कवन भलाई।। दूतन्हि सन सुनि पुरजन बानी। मंदोदरी अधिक अकुलानी।। रहसि जोरि कर पति पग लागी। बोली बचन नीति रस पागी।। कंत करष हरि सन परिहरहू। मोर कहा अति हित हियँ धरहु।। समुझत जासु दूत कइ करनी। स्त्रवहीं गर्भ रजनीचर धरनी।। तासु नारि निज सचिव बोलाई। पठवहु कंत जो चहहु भलाई।। तब कुल कमल बिपिन दुखदाई। सीता सीत निसा सम आई।। सुनहु नाथ सीता बिनु दीन्हें। हित न तुम्हार संभु अज कीन्हें।। दो0–राम बान अहि गन सरिस निकर निसाचर भेक। जब लगि ग्रसत न तब लगि जतनु करहु तजि टेक।।36।। –*–*– श्रवन सुनी सठ ता करि बानी। बिहसा जगत बिदित अभिमानी।। सभय सुभाउ नारि कर साचा। मंगल महुँ भय मन अति काचा।। जौं आवइ मर्कट कटकाई। जिअहिं बिचारे निसिचर खाई।। कंपहिं लोकप जाकी त्रासा। तासु नारि सभीत बड़ि हासा।। अस कहि बिहसि ताहि उर लाई। चलेउ सभाँ ममता अधिकाई।। मंदोदरी हृदयँ कर चिंता। भयउ कंत पर बिधि बिपरीता।। बैठेउ सभाँ खबरि असि पाई। सिंधु पार सेना सब आई।। बूझेसि सचिव उचित मत कहहू। ते सब हँसे मष्ट करि रहहू।। जितेहु सुरासुर तब श्रम नाहीं। नर बानर केहि लेखे माही।। दो0-सचिव बैद गुर तीनि जौं प्रिय बोलहिं भय आस। राज धर्म तन तीनि कर होइ बेगिहीं नास।।37।। –*–*– सोइ रावन कहुँ बनि सहाई। अस्तुति करहिं सुनाइ सुनाई।। अवसर जानि बिभीषनु आवा। भ्राता चरन सीसु तेहिं नावा।। पुनि सिरु नाइ बैठ निज आसन। बोला बचन पाइ अनुसासन।। जौ कृपाल पूँछिहु मोहि बाता। मति अनुरुप कहउँ हित ताता।। जो आपन चाहै कल्याना। सुजसु सुमति सुभ गति सुख नाना।। सो परनारि लिलार गोसाईं। तजउ चउथि के चंद कि नाई।। चौदह भुवन एक पति होई। भूतद्रोह तिष्टइ नहिं सोई।। गुन सागर नागर नर जोऊ। अलप लोभ भल कहइ न कोऊ।। दो0- काम क्रोध मद लोभ सब नाथ नरक के पंथ। सब परिहरि रघुबीरहि भजहु भजहिं जेहि संत।।38।। –*–*– तात राम नहिं नर भूपाला। भुवनेस्वर कालहु कर काला।। ब्रह्म अनामय अज भगवंता। ब्यापक अजित अनादि अनंता।। गो द्विज धेनु देव हितकारी। कृपासिंधु मानुष तनुधारी।। जन रंजन भंजन खल ब्राता। बेद धर्म रच्छक सुनु भ्राता।। ताहि बयरु तजि नाइअ माथा। प्रनतारति भंजन रघुनाथा।। देहु नाथ प्रभु कहुँ बैदेही। भजहु राम बिनु हेतु सनेही।। सरन गएँ प्रभु ताहु न त्यागा। बिस्व द्रोह कृत अघ जेहि लागा।। जासु नाम त्रय ताप नसावन। सोइ प्रभु प्रगट समुझु जियँ रावन।। दो0-बार बार पद लागउँ बिनय करउँ दससीस। परिहरि मान मोह मद भजहु कोसलाधीस।।39(क)।। मुनि पुलस्ति निज सिष्य सन कहि पठई यह बात। तुरत सो मैं प्रभु सन कही पाइ सुअवसरु तात।।39(ख)।। –*–*– माल्यवंत अति सचिव सयाना। तासु बचन सुनि अति सुख माना।। तात अनुज तव नीति बिभूषन। सो उर धरहु जो कहत बिभीषन।। रिपु उतकरष कहत सठ दोऊ। दूरि न करहु इहाँ हइ कोऊ।। माल्यवंत गृह गयउ बहोरी। कहइ बिभीषनु पुनि कर जोरी।। सुमति कुमति सब कें उर रहहीं। नाथ पुरान निगम अस कहहीं।। जहाँ सुमति तहँ संपति नाना। जहाँ कुमति तहँ बिपति निदाना।। तव उर कुमति बसी बिपरीता। हित अनहित मानहु रिपु प्रीता।। कालराति निसिचर कुल केरी। तेहि सीता पर प्रीति घनेरी।। दो0-तात चरन गहि मागउँ राखहु मोर दुलार। सीत देहु राम कहुँ अहित न होइ तुम्हार।।40।। –*–*– बुध पुरान श्रुति संमत बानी। कही बिभीषन नीति बखानी।। सुनत दसानन उठा रिसाई। खल तोहि निकट मुत्यु अब आई।। जिअसि सदा सठ मोर जिआवा। रिपु कर पच्छ मूढ़ तोहि भावा।। कहसि न खल अस को जग माहीं। भुज बल जाहि जिता मैं नाही।। मम पुर बसि तपसिन्ह पर प्रीती। सठ मिलु जाइ तिन्हहि कहु नीती।। अस कहि कीन्हेसि चरन प्रहारा। अनुज गहे पद बारहिं बारा।। उमा संत कइ इहइ बड़ाई। मंद करत जो करइ भलाई।। तुम्ह पितु सरिस भलेहिं मोहि मारा। रामु भजें हित नाथ तुम्हारा।। सचिव संग लै नभ पथ गयऊ। सबहि सुनाइ कहत अस भयऊ।। दो0=रामु सत्यसंकल्प प्रभु सभा कालबस तोरि। मै रघुबीर सरन अब जाउँ देहु जनि खोरि।।41।। –*–*– अस कहि चला बिभीषनु जबहीं। आयूहीन भए सब तबहीं।। साधु अवग्या तुरत भवानी। कर कल्यान अखिल कै हानी।। रावन जबहिं बिभीषन त्यागा। भयउ बिभव बिनु तबहिं अभागा।। चलेउ हरषि रघुनायक पाहीं। करत मनोरथ बहु मन माहीं।। देखिहउँ जाइ चरन जलजाता। अरुन मृदुल सेवक सुखदाता।। जे पद परसि तरी रिषिनारी। दंडक कानन पावनकारी।। जे पद जनकसुताँ उर लाए। कपट कुरंग संग धर धाए।। हर उर सर सरोज पद जेई। अहोभाग्य मै देखिहउँ तेई।। दो0= जिन्ह पायन्ह के पादुकन्हि भरतु रहे मन लाइ। ते पद आजु बिलोकिहउँ इन्ह नयनन्हि अब जाइ।।42।। –*–*– एहि बिधि करत सप्रेम बिचारा। आयउ सपदि सिंधु एहिं पारा।। कपिन्ह बिभीषनु आवत देखा। जाना कोउ रिपु दूत बिसेषा।। ताहि राखि कपीस पहिं आए। समाचार सब ताहि सुनाए।। कह सुग्रीव सुनहु रघुराई। आवा मिलन दसानन भाई।। कह प्रभु सखा बूझिऐ काहा। कहइ कपीस सुनहु नरनाहा।। जानि न जाइ निसाचर माया। कामरूप केहि कारन आया।। भेद हमार लेन सठ आवा। राखिअ बाँधि मोहि अस भावा।। सखा नीति तुम्ह नीकि बिचारी। मम पन सरनागत भयहारी।। सुनि प्रभु बचन हरष हनुमाना। सरनागत बच्छल भगवाना।। दो0=सरनागत कहुँ जे तजहिं निज अनहित अनुमानि। ते नर पावँर पापमय तिन्हहि बिलोकत हानि।।43।। –*–*– कोटि बिप्र बध लागहिं जाहू। आएँ सरन तजउँ नहिं ताहू।। सनमुख होइ जीव मोहि जबहीं। जन्म कोटि अघ नासहिं तबहीं।। पापवंत कर सहज सुभाऊ। भजनु मोर तेहि भाव न काऊ।। जौं पै दुष्टहदय सोइ होई। मोरें सनमुख आव कि सोई।। निर्मल मन जन सो मोहि पावा। मोहि कपट छल छिद्र न भावा।। भेद लेन पठवा दससीसा। तबहुँ न कछु भय हानि कपीसा।। जग महुँ सखा निसाचर जेते। लछिमनु हनइ निमिष महुँ तेते।। जौं सभीत आवा सरनाई। रखिहउँ ताहि प्रान की नाई।। दो0=उभय भाँति तेहि आनहु हँसि कह कृपानिकेत। जय कृपाल कहि चले अंगद हनू समेत।।44।। –*–*– सादर तेहि आगें करि बानर। चले जहाँ रघुपति करुनाकर।। दूरिहि ते देखे द्वौ भ्राता। नयनानंद दान के दाता।। बहुरि राम छबिधाम बिलोकी। रहेउ ठटुकि एकटक पल रोकी।। भुज प्रलंब कंजारुन लोचन। स्यामल गात प्रनत भय मोचन।। सिंघ कंध आयत उर सोहा। आनन अमित मदन मन मोहा।। नयन नीर पुलकित अति गाता। मन धरि धीर कही मृदु बाता।। नाथ दसानन कर मैं भ्राता। निसिचर बंस जनम सुरत्राता।। सहज पापप्रिय तामस देहा। जथा उलूकहि तम पर नेहा।। दो0-श्रवन सुजसु सुनि आयउँ प्रभु भंजन भव भीर। त्राहि त्राहि आरति हरन सरन सुखद रघुबीर।।45।। –*–*– अस कहि करत दंडवत देखा। तुरत उठे प्रभु हरष बिसेषा।। दीन बचन सुनि प्रभु मन भावा। भुज बिसाल गहि हृदयँ लगावा।। अनुज सहित मिलि ढिग बैठारी। बोले बचन भगत भयहारी।। कहु लंकेस सहित परिवारा। कुसल कुठाहर बास तुम्हारा।। खल मंडलीं बसहु दिनु राती। सखा धरम निबहइ केहि भाँती।। मैं जानउँ तुम्हारि सब रीती। अति नय निपुन न भाव अनीती।। बरु भल बास नरक कर ताता। दुष्ट संग जनि देइ बिधाता।। अब पद देखि कुसल रघुराया। जौं तुम्ह कीन्ह जानि जन दाया।। दो0-तब लगि कुसल न जीव कहुँ सपनेहुँ मन बिश्राम। जब लगि भजत न राम कहुँ सोक धाम तजि काम।।46।। –*–*– तब लगि हृदयँ बसत खल नाना। लोभ मोह मच्छर मद माना।। जब लगि उर न बसत रघुनाथा। धरें चाप सायक कटि भाथा।। ममता तरुन तमी अँधिआरी। राग द्वेष उलूक सुखकारी।। तब लगि बसति जीव मन माहीं। जब लगि प्रभु प्रताप रबि नाहीं।। अब मैं कुसल मिटे भय भारे। देखि राम पद कमल तुम्हारे।। तुम्ह कृपाल जा पर अनुकूला। ताहि न ब्याप त्रिबिध भव सूला।। मैं निसिचर अति अधम सुभाऊ। सुभ आचरनु कीन्ह नहिं काऊ।। जासु रूप मुनि ध्यान न आवा। तेहिं प्रभु हरषि हृदयँ मोहि लावा।। दो0–अहोभाग्य मम अमित अति राम कृपा सुख पुंज। देखेउँ नयन बिरंचि सिब सेब्य जुगल पद कंज।।47।। –*–*– सुनहु सखा निज कहउँ सुभाऊ। जान भुसुंडि संभु गिरिजाऊ।। जौं नर होइ चराचर द्रोही। आवे सभय सरन तकि मोही।। तजि मद मोह कपट छल नाना। करउँ सद्य तेहि साधु समाना।। जननी जनक बंधु सुत दारा। तनु धनु भवन सुह्रद परिवारा।। सब कै ममता ताग बटोरी। मम पद मनहि बाँध बरि डोरी।। समदरसी इच्छा कछु नाहीं। हरष सोक भय नहिं मन माहीं।। अस सज्जन मम उर बस कैसें। लोभी हृदयँ बसइ धनु जैसें।। तुम्ह सारिखे संत प्रिय मोरें। धरउँ देह नहिं आन निहोरें।। दो0- सगुन उपासक परहित निरत नीति दृढ़ नेम। ते नर प्रान समान मम जिन्ह कें द्विज पद प्रेम।।48।। –*–*– सुनु लंकेस सकल गुन तोरें। तातें तुम्ह अतिसय प्रिय मोरें।। राम बचन सुनि बानर जूथा। सकल कहहिं जय कृपा बरूथा।। सुनत बिभीषनु प्रभु कै बानी। नहिं अघात श्रवनामृत जानी।। पद अंबुज गहि बारहिं बारा। हृदयँ समात न प्रेमु अपारा।। सुनहु देव सचराचर स्वामी। प्रनतपाल उर अंतरजामी।। उर कछु प्रथम बासना रही। प्रभु पद प्रीति सरित सो बही।। अब कृपाल निज भगति पावनी। देहु सदा सिव मन भावनी।। एवमस्तु कहि प्रभु रनधीरा। मागा तुरत सिंधु कर नीरा।। जदपि सखा तव इच्छा नाहीं। मोर दरसु अमोघ जग माहीं।। अस कहि राम तिलक तेहि सारा। सुमन बृष्टि नभ भई अपारा।। दो0-रावन क्रोध अनल निज स्वास समीर प्रचंड। जरत बिभीषनु राखेउ दीन्हेहु राजु अखंड।।49(क)।। जो संपति सिव रावनहि दीन्हि दिएँ दस माथ। सोइ संपदा बिभीषनहि सकुचि दीन्ह रघुनाथ।।49(ख)।। –*–*– अस प्रभु छाड़ि भजहिं जे आना। ते नर पसु बिनु पूँछ बिषाना।। निज जन जानि ताहि अपनावा। प्रभु सुभाव कपि कुल मन भावा।। पुनि सर्बग्य सर्ब उर बासी। सर्बरूप सब रहित उदासी।। बोले बचन नीति प्रतिपालक। कारन मनुज दनुज कुल घालक।। सुनु कपीस लंकापति बीरा। केहि बिधि तरिअ जलधि गंभीरा।। संकुल मकर उरग झष जाती। अति अगाध दुस्तर सब भाँती।। कह लंकेस सुनहु रघुनायक। कोटि सिंधु सोषक तव सायक।। जद्यपि तदपि नीति असि गाई। बिनय करिअ सागर सन जाई।। दो0-प्रभु तुम्हार कुलगुर जलधि कहिहि उपाय बिचारि। बिनु प्रयास सागर तरिहि सकल भालु कपि धारि।।50।। –*–*– सखा कही तुम्ह नीकि उपाई। करिअ दैव जौं होइ सहाई।। मंत्र न यह लछिमन मन भावा। राम बचन सुनि अति दुख पावा।। नाथ दैव कर कवन भरोसा। सोषिअ सिंधु करिअ मन रोसा।। कादर मन कहुँ एक अधारा। दैव दैव आलसी पुकारा।। सुनत बिहसि बोले रघुबीरा। ऐसेहिं करब धरहु मन धीरा।। अस कहि प्रभु अनुजहि समुझाई। सिंधु समीप गए रघुराई।। प्रथम प्रनाम कीन्ह सिरु नाई। बैठे पुनि तट दर्भ डसाई।। जबहिं बिभीषन प्रभु पहिं आए। पाछें रावन दूत पठाए।। दो0-सकल चरित तिन्ह देखे धरें कपट कपि देह। प्रभु गुन हृदयँ सराहहिं सरनागत पर नेह।।51।। –*–*– प्रगट बखानहिं राम सुभाऊ। अति सप्रेम गा बिसरि दुराऊ।। रिपु के दूत कपिन्ह तब जाने। सकल बाँधि कपीस पहिं आने।। कह सुग्रीव सुनहु सब बानर। अंग भंग करि पठवहु निसिचर।। सुनि सुग्रीव बचन कपि धाए। बाँधि कटक चहु पास फिराए।। बहु प्रकार मारन कपि लागे। दीन पुकारत तदपि न त्यागे।। जो हमार हर नासा काना। तेहि कोसलाधीस कै आना।। सुनि लछिमन सब निकट बोलाए। दया लागि हँसि तुरत छोडाए।। रावन कर दीजहु यह पाती। लछिमन बचन बाचु कुलघाती।। दो0-कहेहु मुखागर मूढ़ सन मम संदेसु उदार। सीता देइ मिलेहु न त आवा काल तुम्हार।।52।। –*–*– तुरत नाइ लछिमन पद माथा। चले दूत बरनत गुन गाथा।। कहत राम जसु लंकाँ आए। रावन चरन सीस तिन्ह नाए।। बिहसि दसानन पूँछी बाता। कहसि न सुक आपनि कुसलाता।। पुनि कहु खबरि बिभीषन केरी। जाहि मृत्यु आई अति नेरी।। करत राज लंका सठ त्यागी। होइहि जब कर कीट अभागी।। पुनि कहु भालु कीस कटकाई। कठिन काल प्रेरित चलि आई।। जिन्ह के जीवन कर रखवारा। भयउ मृदुल चित सिंधु बिचारा।। कहु तपसिन्ह कै बात बहोरी। जिन्ह के हृदयँ त्रास अति मोरी।। दो0–की भइ भेंट कि फिरि गए श्रवन सुजसु सुनि मोर। कहसि न रिपु दल तेज बल बहुत चकित चित तोर।।53।। –*–*– नाथ कृपा करि पूँछेहु जैसें। मानहु कहा क्रोध तजि तैसें।। मिला जाइ जब अनुज तुम्हारा। जातहिं राम तिलक तेहि सारा।। रावन दूत हमहि सुनि काना। कपिन्ह बाँधि दीन्हे दुख नाना।। श्रवन नासिका काटै लागे। राम सपथ दीन्हे हम त्यागे।। पूँछिहु नाथ राम कटकाई। बदन कोटि सत बरनि न जाई।। नाना बरन भालु कपि धारी। बिकटानन बिसाल भयकारी।। जेहिं पुर दहेउ हतेउ सुत तोरा। सकल कपिन्ह महँ तेहि बलु थोरा।। अमित नाम भट कठिन कराला। अमित नाग बल बिपुल बिसाला।। दो0-द्विबिद मयंद नील नल अंगद गद बिकटासि। दधिमुख केहरि निसठ सठ जामवंत बलरासि।।54।। –*–*– ए कपि सब सुग्रीव समाना। इन्ह सम कोटिन्ह गनइ को नाना।। राम कृपाँ अतुलित बल तिन्हहीं। तृन समान त्रेलोकहि गनहीं।। अस मैं सुना श्रवन दसकंधर। पदुम अठारह जूथप बंदर।। नाथ कटक महँ सो कपि नाहीं। जो न तुम्हहि जीतै रन माहीं।। परम क्रोध मीजहिं सब हाथा। आयसु पै न देहिं रघुनाथा।। सोषहिं सिंधु सहित झष ब्याला। पूरहीं न त भरि कुधर बिसाला।। मर्दि गर्द मिलवहिं दससीसा। ऐसेइ बचन कहहिं सब कीसा।। गर्जहिं तर्जहिं सहज असंका। मानहु ग्रसन चहत हहिं लंका।। दो0–सहज सूर कपि भालु सब पुनि सिर पर प्रभु राम। रावन काल कोटि कहु जीति सकहिं संग्राम।।55।। –*–*– राम तेज बल बुधि बिपुलाई। तब भ्रातहि पूँछेउ नय नागर।। तासु बचन सुनि सागर पाहीं। मागत पंथ कृपा मन माहीं।। सुनत बचन बिहसा दससीसा। जौं असि मति सहाय कृत कीसा।। सहज भीरु कर बचन दृढ़ाई। सागर सन ठानी मचलाई।। मूढ़ मृषा का करसि बड़ाई। रिपु बल बुद्धि थाह मैं पाई।। सचिव सभीत बिभीषन जाकें। बिजय बिभूति कहाँ जग ताकें।। सुनि खल बचन दूत रिस बाढ़ी। समय बिचारि पत्रिका काढ़ी।। रामानुज दीन्ही यह पाती। नाथ बचाइ जुड़ावहु छाती।। बिहसि बाम कर लीन्ही रावन। सचिव बोलि सठ लाग बचावन।। दो0–बातन्ह मनहि रिझाइ सठ जनि घालसि कुल खीस। राम बिरोध न उबरसि सरन बिष्नु अज ईस।।56(क)।। की तजि मान अनुज इव प्रभु पद पंकज भृंग। होहि कि राम सरानल खल कुल सहित पतंग।।56(ख)।। –*–*– सुनत सभय मन मुख मुसुकाई। कहत दसानन सबहि सुनाई।। भूमि परा कर गहत अकासा। लघु तापस कर बाग बिलासा।। कह सुक नाथ सत्य सब बानी। समुझहु छाड़ि प्रकृति अभिमानी।। सुनहु बचन मम परिहरि क्रोधा। नाथ राम सन तजहु बिरोधा।। अति कोमल रघुबीर सुभाऊ। जद्यपि अखिल लोक कर राऊ।। मिलत कृपा तुम्ह पर प्रभु करिही। उर अपराध न एकउ धरिही।। जनकसुता रघुनाथहि दीजे। एतना कहा मोर प्रभु कीजे। जब तेहिं कहा देन बैदेही। चरन प्रहार कीन्ह सठ तेही।। नाइ चरन सिरु चला सो तहाँ। कृपासिंधु रघुनायक जहाँ।। करि प्रनामु निज कथा सुनाई। राम कृपाँ आपनि गति पाई।। रिषि अगस्ति कीं साप भवानी। राछस भयउ रहा मुनि ग्यानी।। बंदि राम पद बारहिं बारा। मुनि निज आश्रम कहुँ पगु धारा।। दो0-बिनय न मानत जलधि जड़ गए तीन दिन बीति। बोले राम सकोप तब भय बिनु होइ न प्रीति।।57।। –*–*– लछिमन बान सरासन आनू। सोषौं बारिधि बिसिख कृसानू।। सठ सन बिनय कुटिल सन प्रीती। सहज कृपन सन सुंदर नीती।। ममता रत सन ग्यान कहानी। अति लोभी सन बिरति बखानी।। क्रोधिहि सम कामिहि हरि कथा। ऊसर बीज बएँ फल जथा।। अस कहि रघुपति चाप चढ़ावा। यह मत लछिमन के मन भावा।। संघानेउ प्रभु बिसिख कराला। उठी उदधि उर अंतर ज्वाला।। मकर उरग झष गन अकुलाने। जरत जंतु जलनिधि जब जाने।। कनक थार भरि मनि गन नाना। बिप्र रूप आयउ तजि माना।। दो0-काटेहिं पइ कदरी फरइ कोटि जतन कोउ सींच। बिनय न मान खगेस सुनु डाटेहिं पइ नव नीच।।58।। –*–*– सभय सिंधु गहि पद प्रभु केरे। छमहु नाथ सब अवगुन मेरे।। गगन समीर अनल जल धरनी। इन्ह कइ नाथ सहज जड़ करनी।। तव प्रेरित मायाँ उपजाए। सृष्टि हेतु सब ग्रंथनि गाए।। प्रभु आयसु जेहि कहँ जस अहई। सो तेहि भाँति रहे सुख लहई।। प्रभु भल कीन्ही मोहि सिख दीन्ही। मरजादा पुनि तुम्हरी कीन्ही।। ढोल गवाँर सूद्र पसु नारी। सकल ताड़ना के अधिकारी।। प्रभु प्रताप मैं जाब सुखाई। उतरिहि कटकु न मोरि बड़ाई।। प्रभु अग्या अपेल श्रुति गाई। करौं सो बेगि जौ तुम्हहि सोहाई।। दो0-सुनत बिनीत बचन अति कह कृपाल मुसुकाइ। जेहि बिधि उतरै कपि कटकु तात सो कहहु उपाइ।।59।। –*–*– नाथ नील नल कपि द्वौ भाई। लरिकाई रिषि आसिष पाई।। तिन्ह के परस किएँ गिरि भारे। तरिहहिं जलधि प्रताप तुम्हारे।। मैं पुनि उर धरि प्रभुताई। करिहउँ बल अनुमान सहाई।। एहि बिधि नाथ पयोधि बँधाइअ। जेहिं यह सुजसु लोक तिहुँ गाइअ।। एहि सर मम उत्तर तट बासी। हतहु नाथ खल नर अघ रासी।। सुनि कृपाल सागर मन पीरा। तुरतहिं हरी राम रनधीरा।। देखि राम बल पौरुष भारी। हरषि पयोनिधि भयउ सुखारी।। सकल चरित कहि प्रभुहि सुनावा। चरन बंदि पाथोधि सिधावा।। छं0-निज भवन गवनेउ सिंधु श्रीरघुपतिहि यह मत भायऊ। यह चरित कलि मलहर जथामति दास तुलसी गायऊ।। सुख भवन संसय समन दवन बिषाद रघुपति गुन गना।। तजि सकल आस भरोस गावहि सुनहि संतत सठ मना।। दो0-सकल सुमंगल दायक रघुनायक गुन गान। सादर सुनहिं ते तरहिं भव सिंधु बिना जलजान।।60।। मासपारायण, चौबीसवाँ विश्राम ~~~~~~~ इति श्रीमद्रामचरितमानसे सकलकलिकलुषविध्वंसने पञ्चमः सोपानः समाप्तः ।

गायत्री मंच सभी के लिए उपयोगी है,किन्तु विघार्थियों के लिए अत्यंत लाभदायक है |

गायत्री मंत्र का जाप करने से उत्साह एवं सकारात्मकता से आपकी त्वचा में चमक आती है, तामसिकता से घृणा, और परमार्थ में रूचि जागती है, पूर्वाभास होने लगता है, आशीर्वाद देने की शक्ति बढ़ती है, नेत्रों में तेज आता है, स्वप्न सिद्ध हो जाते हैं, क्रोध शांत होता है, ज्ञान की वृद्धि होती है। पंडित 'विशाल' दयानंद शास्‍त्री बताते हैं कि यदि कोई व्यक्ति जीवन की समस्याओं से बहुत त्रस्त है तो उसकी समस्याएं समाप्त हो जाएंगी। वह पीपल, शमी, वट, गूलर, पाकर की समिधाएं लेकर एक पात्र में कच्चा दूध भरकर रख लें एवं उस दूध के सामने एक हजार गायत्री मंत्र का जाप करें। इसके बाद एक-एक समिधा को दूध में स्पर्श करा कर गायत्री मंत्र का जप करते हुए अग्रि में होम करने से समस्त परेशानियों एवं दरिद्रता से मुक्ति मिल जाती है। विद्यार्थीयों के लिए: गायत्री मंत्र का जप सभी के लिए उपयोगी है किंतु विद्यार्थियों के लिए तो यह मंत्र बहुत लाभदायक है। रोजाना इस मंत्र का एक सौ आठ बार जप करने से विद्यार्थी को सभी प्रकार की विद्या प्राप्त करने में आसानी होती है। विद्यार्थियों को पढऩे में मन नहीं लगना, याद किया हुआ भूल जाना, शीघ्रता से याद न होना आदि समस्याओं से निजात मिल जाती है। दरिद्रता के नाश के लिए : यदि किसी व्यक्ति के व्यापार, नौकरी में हानि हो रही है या कार्य में सफलता नहीं मिलती, आमदनी कम है तथा व्यय अधिक है तो उन्हें गायत्री मंत्र का जप काफी फायदा पहुंचाता है। शुक्रवार को पीले वस्त्र पहनकर हाथी पर विराजमान गायत्री माता का ध्यान कर गायत्री मंत्र के आगे और पीछे श्रीं सम्पुट लगाकर जप करने से दरिद्रता का नाश होता है। इसके साथ ही रविवार को व्रत किया जाए तो ज्यादा लाभ होता है। संतान संबंधी परेशानियां दूर करने के लिए : किसी दंपत्ति को संतान प्राप्त करने में कठिनाई आ रही हो या संतान से दुखी हो अथवा संतान रोगग्रस्त हो तो प्रात: पति-पत्नी एक साथ सफेद वस्त्र धारण कर यौं बीज मंत्र का सम्पुट लगाकर गायत्री मंत्र का जप करें। संतान संबंधी किसी भी समस्या से शीघ्र मुक्ति मिलती है। पढ़ें : कुछ इस तरह कीजिए मां गायत्री की उपासना शत्रुओं पर विजय प्राप्त करने के लिए : यदि कोई व्यक्ति शत्रुओं के कारण परेशानियां झेल रहा हो तो उसे प्रतिदिन या विशेषकर मंगलवार, अमावस्या अथवा रविवार को लाल वस्त्र पहनकर माता दुर्गा का ध्यान करते हुए गायत्री मंत्र के आगे एवं पीछे क्लीं बीज मंत्र का तीन बार सम्पुट लगाकार एक सौ आठ बार जाप करने से शत्रुओं पर विजय प्राप्त होती है। मित्रों में सद्भाव, परिवार में एकता होती है तथा न्यायालयों आदि कार्यों में भी विजय प्राप्त होती है। विवाह कार्य में देरी हो रही हो तो : यदि किसी भी जातक के विवाह में अनावश्यक देरी हो रही हो तो सोमवार को सुबह के समय पीले वस्त्र धारण कर माता पार्वती का ध्यान करते हुए ह्रीं बीज मंत्र का सम्पुट लगाकर एक सौ आठ बार जाप करने से विवाह कार्य में आने वाली समस्त बाधाएं दूर होती हैं। यह साधना स्त्री पुरुष दोनों कर सकते हैं। पढ़ें : वेदों से हुई उत्पत्ति इसलिए हैं वेदमाता यदि किसी रोग के कारण परेशानियां हों तो : यदि किसी रोग से परेशान है और रोग से मुक्ति जल्दी चाहते हैं तो किसी भी शुभ मुहूर्त में एक कांसे के पात्र में स्वच्छ जल भरकर रख लें एवं उसके सामने लाल आसन पर बैठकर गायत्री मंत्र के साथ ऐं ह्रीं क्लीं का संपुट लगाकर गायत्री मंत्र का जप करें। जप के पश्चात जल से भरे पात्र का सेवन करने से गंभीर से गंभीर रोग का नाश होता है। यही जल किसी अन्य रोगी को पीने देने से उसके भी रोग का नाश होता हैं। रोग निवारण के लिए: किसी भी शुभ मुहूर्त में दूध, दही, घी एवं शहद को मिलाकर एक हजार गायत्री मंत्रों के साथ हवन करने से चेचक, आंखों के रोग एवं पेट के रोग समाप्त हो जाते हैं। इसमें समिधाएं पीपल की होना चाहिए। गायत्री मंत्रों के साथ नारियल का बुरा एवं घी का हवन करने से शत्रुओं का नाश हो जाता है। नारियल के बुरे मे यदि शहद का प्रयोग किया जाए तो सौभाग्य में वृद्धि होती हैं।

श्री हनुमान चालीसा

श्री गुरु चरण सरज राज , निज मनु मुकुर सुधारे | बरनौ रघुबर बिमल जासु , जो धयक फल चारे || बुधिहिएँ तनु जानके , सुमेराव पवन -कुमार | बल बूढी विद्या देहु मोहे , हरहु कलेस बिकार || चोपाई जय हनुमान ज्ञान गुण सागर | जय कपिसे तहु लोक उजागर || राम दूत अतुलित बल धामा | अनजानी पुत्र पवन सूत नामा || महाबीर बिक्रम बज्रगी | कुमति निवास सुमति के संगी || कंचन बरन बिराज सुबेसा | कण कुंडल कुंचित केसा || हात वज्र औ दहेज बिराजे | कंधे मुज जनेऊ सजी || संकर सुवन केसरीनंदन | तेज प्रताप महा जग बंधन || विद्यावान गुने आती चतुर | राम काज कैबे को आतुर || प्रभु चरित सुनिबे को रसिया | राम लखन सीता मान बसिया || सुषम रूप धरी सियाही दिखावा | बिकट रूप धरी लंक जरावा || भीम रूप धरी असुर सहरइ | रामचंद्र के काज सवारे || लाये संजीवन लखन जियाये | श्रीरघुवीर हर्षा उरे लाये || रघुपति किन्हें बहुत बड़ाई | तुम मम प्रिये भारत सम भाई || सहरत बदन तुमर्हू जस गावे | आस कही श्रीपति कान्त लगावे || संकदीक भ्रमधि मुनीसा | नारद सरद सहित अहिसा || जम कुबेर दिगपाल जहा थी | कवी कोविद कही सके कहा थी || तुम उपकार सुघुव कहिन | राम मिलाये राज पद देंह || तुम्रहो मंत्र विभेक्षण मन | लंकेश्वर भये सब जग जान || जुग सहेस जोजन पैर भानु | लिन्यो ताहि मधुर फल जणू || प्रभु मुद्रिका मेली मुख माहि | जलधि लाधी गए अचरज नहीं || दुर्गम काज जगत के जेते | सुगम अनुग्रह तुमरे तेते || राम दुआरे तुम रखवारे | हूट न आगया बिनु पसरे || सब सुख लहै तुम्हरे सरना | तुम रचक कहू को डारना || आपण तेज सम्हारो आपे | तेनो लोक हकतइ कापे || भुत पेसच निकट नहीं आवेह | महावीर जब नाम सुनावेह || नसे रोग हरे सब पीरा | जपत निरंतर हनुमत बल बीरा || संकट से हनुमान चुदावे | मान कम बचन दायाँ जो लावे || सब पैर राम तपस्वी रजा | तिन के काज सकल तुम सजा || और मनोरत जो कई लावे | टसुये अमित जीवन फल पावे || चारो गुज प्रताप तुमारह | है प्रसिद्ध जगत ujeyara || साधू संत के तुम रखवारे | असुर निकंदन राम दुलारे || Ashat सीधी नवनिधि के डाटा | अस वर दीं जानकी माता || राम रसायन तुम्हरे पासा | सदा रहो रघुपति के दस || तुम्रेह भजन राम को भावे | जनम जनम के दुःख बिस्रावे || अंत काल रघुबर पुर जी | जहा जनम हरी भगत कहेई || और देवता चितन धरयो | हनुमत सेये सर्व सुख करेई || संकट कटे मिटे सब पर | जो सुमेरे हनुमत बलबीर || जय जय जय हनुमान गुसाई | कृपा करो गुरु देव के नाइ || जो सैट बार पट कर कोई | चुतेही बंधी महा सुख होई || जो यहे पड़े हनुमान चालीसा | होए सीधी सा के गोरेसा || तुलसीदास सदा हरी चेरा | कीजेये नाथ हृदये महा डेरा || दोहा पवंत्नाये संकट हरण , मंगल मूर्ति रूप | राम लखन सीता सहेत , हृदये बसु सुर भूप ||

घंटाघर मिरजापुर की शान

मिर्ज़ापुर के गुलाबी देशी पत्थरों पे की गयी अद्भुत महीन नक्काशियों से बना ये घंटाघर इस जैसा घंटा घर पुरे एशिया में दूसरा नहीं है इस कलात्मक घंटा घर को बनाने में मिर्ज़ापुर के कारीगरों ने अपनी कारीगरी का बखूबी इस्तमाल किया है. गुलाबी पत्थरो पर की गयी जटिल महीन नक्काशी जो वाकई काबिले तारीफ है एसी दुर्लभ नक्काशिया कम ही देखने को मिलती है. इस घंटा घर कि 100 फिट हैं और इसका निर्माण 31 मई 1991 में हुआ था इस के निर्माण की तिथि घंटाघर की आखिर मंजिल की खिडकियों पर अंकित है. उस समय इसके निर्माण में कुल खर्च 18000 रुपये आये थे. सबसे खास इस ईमारत की घडी है जिसे मिर्ज़ापुर की धड़कन बोला जाता है. इस की आवाज़ नगर के चारो ओर सुनाई पड़ती थी और लोगो को समय पता चलता था. लंदन के नियर्स स्टेट बैंक कंपनी द्वारा किया गया था खास बात यह है की घडी गुरुत्वाकर्षण बल द्वारा चलटी हैं और इसमे कोई भी स्प्रिग आदि नहीं लगी है. काफी जटिल कारीगरी से बनाया गया है. और इस घडी का लगभग एक क्विंटल है