बुधवार, 22 मार्च 2017

अयोध्या राम मंदिर जने किन बातो पर फसी है पेंच

अयोध्या में राम मंदिर के मुद्दे पर आउट ऑफ कोर्ट सेटलमेंट को लेकर सुप्रीम कोर्ट की टिप्पणी के बाद आजतक ने नई पहल की है. आज तक ने दोनों पक्षकारों से इस मामले पर बात की और मुद्दे के समाधान को लेकर उनकी राय को सामने लाने की कोशिश की. हिंदू और मुसलमान दोनों ही पक्षों ने कहा कि इस मामले पर केंद्र सरकार दोनों पक्षों से अलग-अलग बात करे. पक्षकारों ने इस मुद्दे को सुलझाने लिए कई बाते रखीं जिनमें चार शर्तें सामने आईं- शर्त 1- उसी 2.7 एकड़ जमीन पर बने राम मंदिर-मस्जिद. शर्त 2- शर्त- पहल आगे बढ़ाने के लिए केंद्र नुमाइंदे भेजे. शर्त 3- सुब्रमण्यम स्वामी और हाजी महबूब जैसे विवाद बढ़ाने वाले लोग दूर रहें. शर्त 4- अयोध्या में दोनों पक्षकार एक साथ बैठें. क्या कहना है पक्षकारों का? महंत ज्ञानदास- हनुमानगढ़ी मंदिर के महंत ज्ञानदास ने कहा कि सुब्रमण्यम स्वामी ने राम मंदिर मामले को उलझा दिया है. सबकी सहमति से और न्यायलय की मध्यस्थता में इस मामले का शांतिपूर्ण समाधान होना चाहिए. दोनों पक्ष इसपर सहमत हो सकते हैं. इकबाल अंसारी मामले में पक्षकार रहे हाशिल अंसारी के बेटे इकबाल अंसारी का कहना है कि परिसर में ही राम मंदिर और मस्जिद का निर्माण हो सकता है. हाईकोर्ट ने इसी आधार पर फैसला सुनायया था. इस मामले में नए राजनीतिक विवाद पैदा करने की कोशिशें नहीं होनी चाहिए. बातचीत से मामले का हल निकल सकता है. ये आस्था से जुड़ा मामला, जल्द हल निकलेगा- संबित पात्रा बीजेपी के प्रवक्ता संबित पात्रा ने सुब्रहमण्यम स्वामी जैसे लोगों को अयोध्या मामले से दूर रहने की बात पर कहा कि स्वामी की याचिका पर ही सुप्रीम कोर्ट ने पहल की है. संबित पात्रा ने कहा कि कुछ समय लगेगा लेकिन इसका सर्वमान्य हल निकलेगा. संबित पात्रा ने कहा कि ये आस्था का मामला है केवल जमीन का मामला है. दूसरे पक्ष को भी आस्था और भावना की इस बात को समझना चाहिए. SC की पहल से अच्छा मौका: कांग्रेस कांग्रेस के नेता मुकेश नायक ने कहा कि देश का ध्यान गंभीर समस्याओं पर होना चाहिए. इतने साल बीत गए. इस मामले को लेकर दोनों वर्गों में अशांति होती है. वास्ताव में इस महान अवसर को अपने हाथ से नहीं जाने देना है तो जैसा पक्षकार कह रहे हैं कि विवाद बढ़ाने वालों को दूर रखा जाए. सुप्रीम कोर्ट से निकले हल- सपा समाजवादी पार्टी के नेता घनश्याम तिवारी ने कहा कि इस मामले को लेकर काफी अशांति और अहिंसा हो चुकी है. अब इसका समाधान कोर्ट से आना चाहिए. सुप्रीम कोर्ट को इस मामले में अपना फैसला सुनाना चाहिए. अयोध्या के हिंदु-मुस्लिम एक मंच पर आए. इस दौरान महंत ज्ञानदास ने कहा कि सुब्रमण्यम स्वामी ने राम मंदिर मामले को उलझा दिया है. उन्होंने कहा कि सुब्रमण्यम स्वामी इस मामले पर अपना मुंह बंद रखें. इकबाल अंसारी ने कहा, हम चाहते हैं कि मंदिर-मस्जिद का विवाद खत्म होना चाहिए. इस मामले को कट्टरपंथियों ने उलझा दिया है. क्या कहा था सुप्रीम कोर्ट ने? हाल ही में सुप्रीम कोर्ट की टिप्पणी से वर्षों से अदालत की चौखट पर अटके अयोध्या राम जन्मभूमि विवाद का अदालत के बाहर हल होने की संभावनाएं जगी हैं. सुप्रीम कोर्ट ने मामले को संवेदनशील और आस्था से जुड़ा बताते हुए पक्षकारों से बातचीत के जरिए आपसी सहमति से मसले का हल निकालने को कहा है. अदालत ने इसके लिए 31 मार्च तक का समय दिया है. कोर्ट ने यहां तक सुझाव दिया कि अगर जरूरत पड़ी तो वो हल निकालने के लिए मध्यस्थता को भी तैयार है. कोर्ट का यह रुख इसलिए अहम है क्योंकि एक बड़ा वर्ग इसे बातचीत और सामंजस्य से ही सुलझाने की बात करता रहा है. यह टिप्पणी मंगलवार को मुख्य न्यायाधीश जेएस खेहर, न्यायमूर्ति डीवाई चंद्रचूड़ और न्यायमूर्ति संजय किशन कौल की पीठ ने भाजपा नेता सुब्रमण्यम स्वामी की अयोध्या जन्मभूमि विवाद मामले की जल्दी सुनवाई की मांग पर की. क्या था इलाहाबाद हाईकोर्ट का फैसला? इससे पहले, इलाहाबाद हाईकोर्ट की लखनऊ पीठ ने 2010 में जन्मभूमि विवाद में फैसला सुनाते हुए जमीन को तीनों पक्षकारों में बांटने का आदेश दिया था. हाईकोर्ट ने जमीन को रामलला विराजमान, निर्मोही अखाड़ा और सुन्नी वक्फ बोर्ड में बराबर बराबर बांटने का आदेश दिया था. हाईकोर्ट के फैसले के खिलाफ सभी पक्षकारों ने सुप्रीमकोर्ट में अपीलें दाखिल कर रखी हैं जो कि पिछले छह साल से लंबित हैं.

भारत पर 17 बार आक्रमण करने वाला महमूद गजनवी

शासन 997-1030 राज तिलक 1002 जन्म 2 नवम्बर 971 (लगभग) जन्म स्थान ग़ज़नी, अफगानिस्तान मृत्यु 30 अप्रैल 1030 (उम्र 59 वर्ष में) मृत्यु स्थान ग़ज़नी, अफगानिस्तान पूर्वाधिकारी सुबुक्तिगिन पिता सेबुक्तिगिन धर्म सुन्नी इस्लाम महमूद ग़ज़नवी (971-1030) मध्य अफ़ग़ानिस्तान में केन्द्रित गज़नवी वंश का एक महत्वपूर्ण शासक था जो पूर्वी ईरान भूमि में साम्राज्य विस्तार के लिए जाना जाता है। वह तुर्क मूल का था और अपने समकालीन (और बाद के) सल्जूक़ तुर्कों की तरह पूर्व में एक सुन्नी इस्लामी साम्राज्य बनाने में सफल हुआ। उसके द्वारा जीते गए प्रदेशों में आज का पूर्वी ईरान, अफगानिस्तान और संलग्न मध्य-एशिया (सम्मिलिलित रूप से ख़ोरासान), पाकिस्तान और उत्तर-पश्चिम भारत शामिल थे। उसके युद्धों में फ़ातिमी सुल्तानों (शिया), काबुल शाहिया राजाओं (हिन्दू) और कश्मीर का नाम प्रमुखता से आता है। भारत में इस्लामी शासन लाने और आक्रमण के दौरान लूटपाट मचाने के कारण भारतीय हिन्दू समाज में उसको एक लुटेरे आक्रांता के रूप में जाना जाता है। सोमनाथ के मन्दिर को लूटना (1025) इस कड़ी की एक महत्वपूर्ण घटना थी। वह पिता के वंश से तुर्क था पर उसने फ़ारसी भाषा के पुनर्जागरण में महत्वपूर्ण भूमिका निभाई। हाँलांकि उसके दरबारी कवि फ़िरदौसी ने शाहनामे की रचना की पर वो हमेशा कवि का समर्थक नहीं रहा था। ग़ज़नी, जो मध्य अफ़गानिस्तान में स्थित एक छोटा शहर था, को उसने साम्राज्य के धनी और प्रांतीय शहर के रूप में बदल गया। बग़दाद के इस्लामी (अब्बासी) ख़लीफ़ा ने उसको सुल्तान की पदवी दी। मूल संपादित करें सुबुक तिगिन एक तुर्क ग़ुलाम (दास) था जिसने खोरासान के सामानी शासकों से अलग होकर ग़ज़नी में स्थित अपना एक छोटा शासन क्षेत्र स्थापित किया था। पर उसकी ईरानी बेगम की संतान महमूद ने साम्राज्य बहुत विस्तृत किया। फ़ारसी काव्य में महमूद के अपने ग़ुलाम मलिक अयाज़ के साथ समलैंगिक प्रेम का ज़िक्र मिलता है (हाफ़िज़ शिराज़ी)[1]। उर्दू में इक़बाल का लिखा एक शेर - न हुस्न में रहीं वो शोखियाँ, न इश्क़ में रहीं वो गर्मियाँ; न वो गज़नवी में तड़प रहीं, न वो ख़म है ज़ुल्फ़-ए-अयाज़ में। (ख़म - घुंघरालापन) सामरिक विवरण संपादित करें 997: काराखानी साम्राज्य। 999: ख़ुरासान, बल्ख़, हेरात और मर्व पर सामानी कब्जे के विरुद्ध आक्रमण। इसी समय उत्तर से काराख़ानियों के आक्रमण की वजह से सामानी साम्राज्य तितर-बितर। 1000: सिस्तान, पूर्वी ईरान। 1001: गांधार में पेशावर के पास जयपाल की पराजय। जयपाल ने बाद में आत्महत्या कर ली। 1002: सिस्तान: खुलुफ को बन्दी बनाया। 1004: भाटिया (Bhera) को कर न देने के बाद अपने साम्राज्य में मिलाया। 1008: जयपाल के बेटे आनंदपाल को हराया। ग़ोर और अमीर सुरी को बंदी बनाया। ग़ज़ना में अमीर सुरी मरा। सेवकपाल को राज्यपाल बनाया। अनंदपाल कश्मीर के पश्चिमी पहाड़ियों में लोहारा को भागा। आनंदपाल अपने पिता की मृत्यु (आत्महत्या) का बदला नहीं ले सका। 1005: बल्ख़ और खोरासान को नासिर प्रथम के आक्रमण से बचाया। निशापुर को सामानियों से वापिस जीता। 1005: सेवकपाल का विद्रोह और दमन। 1008: हिमाचल के कांगरा की संपत्ति कई हिन्दू राजाओं (उज्जैन, ग्वालियर, कन्नौज, दिल्ली, कालिंजर और अजमेर) को हराने के बाद हड़प ली। ऐतिहासिक कहानियों के अनुसार गखर लोगों के आक्रमण और समर के बाद महमूद की सेना भागने को थी। तभी आनंदपाल के हाथी मतवाले हो गए और युद्ध का रुख पलट गया। 1010: ग़ोर, अफ़ग़ानिस्तान। 1010: मुल्तान विद्रोह, अब्दुल फतह दाउद को कैद। 1011: थानेसर। 1012: जूरजिस्तान 1012: बग़दाद के अब्बासी खलीफ़ा से खोरासान के बाक़ी क्षेत्रों की मांग और पाया। समरकंद की मांग ठुकराई गई। 1013: Bulnat: त्रिलोचनपाल को हराया। 1014 : काफ़िरिस्तान पर चढ़ाई। 1015: कश्मीर पर चढ़ाई - विफल। 1015: ख़्वारेज़्म - अपनी बहन की शादी करवाया और विद्रोह का दमन। 1017: कन्नौज, मेरठ और यमुना के पास मथुरा। कश्मीर (?) से वापसी के समय कन्नौज और मेरठ का समर्पण। 1021: अपने ग़ुलाम मलिक अयाज़ को लाहोर का राजा बनाया। 1021: कालिंजर का कन्नौज पर आक्रमण : जब वो मदद को पहुंचा तो पाया कि आखिरी शाहिया राजा त्रिलोचनपाल भी था। बिना युद्ध के वापस लौटा, पर लाहौर पर कब्जा। त्रिलोचनपाल अजमेर को भागा। सिन्धु नदी के पूर्व में पहला मुस्लिम गवर्नर नियुक्त। 1023:लाहौर। कालिंजर और ग्वालियर पर कब्जा करने में असफल। त्रिलोचनपाल (जलपाल का पोता) को अपने ही सैनिकों ने मार डाला। पंजाब पर उसका कब्जा। कश्मीर (लोहरा) पर विजय पाने में दुबारा असफल। 1024: अजमेर, नेहरवाला और काठियावाड़ : आख़िरी बड़ा युद्ध। 1025: सोमनाथ: मंदिर को लूटा। किंवदंतियों के अनुसार सोमनाथ के शिवलिंग के भग्नावशेषों को ले जाकर उसने ग़ज़नी के जामा मस्जिद का हिस्सा बनवाया। गुजरात में नया राज्यपाल नियुक्त और अजमेर की सेना से बचने के लिए थार मरुस्थल के रास्ते का सहारा। 1027: जाटों के खिलाफ़। 1027: रे, इस्फ़ाहान और हमादान (मध्य और पश्चिमी ईरान में)- बुवाही शासकों के खिलाफ। 1028, 1029: मर्व और निशापुर, सल्जूक़ तुर्कों के हाथों पराजय। महत्व संपादित करें भारत (पंजाब) में इस्लामी शासन लाने की वजह से पाकिस्तान और उत्तरी भारत के इतिहास में उसका एक महत्वपूर्ण स्थान है। पाकिस्तान में जहाँ वो एक इस्लामी शासक की इज्जत पाता है वहीं भारत में एक लुटेरे और क़ातिल के रूप में गिना जाता है। पाकिस्तान ने उसके नाम पर अपने एक मिसाइल (प्रक्षेपास्त्र) का नाम रखा है। उसको फिरदोसी के आश्रय और बाद के संबंध-विच्छेद के सिलसिले में याद किया जाता है। कहा जाता है कि महमूद ने फिरदौसी को ईरान के प्राचीन राजाओं के बारे में लिखने के लिए कहा था। इस्लाम के पूर्व के पारसी शासकों और मिथकों को मिलाकर 27 वर्षों की मेहनत के बाद जब फ़िरदौसी महमूद के दरबार में आया तो महमूद, कथित तौर पर अपने मंत्रियों की सलाह पर, उसको अच्छा काव्य मानने से मुकर गया। उसने अपने किए हुए वादे में प्रत्येक दोहे के लिए एक दीनार की बजाय सिर्फ एक दिरहम देने का प्रस्ताव किया। फ़िरदौसी ने इसे ठुकरा दिया तो वो क्रोधित हो गया। उसने फिरदौसी को बुलाया लेकिन भयभीत शायर नहीं आया। अब फिरदौसी ने महमूद के विरुद्ध कुछ पंक्तियाँ लिखीं जो लोकप्रिय होने लगीं : अय शाह-ए-महमूद, केश्वर कुशा ज़ि कसी न तरसी बतरसश ख़ुदा (ऐ शाह महमूद, देशों को जीतने वाले; अगर किसी से नहीं डरता हो तो भगवान से डर). इन पंक्तियों में उसके जनकों (ख़ासकर माँ) के बारे में अपमान जनक बातें लिखी थी। लेकिन, कुछ दिनों के बाद, ग़ज़नी की गलियों में लोकप्रिय इन पंक्तियों की ख़बर जब महमूद को लगी तो उसने दीनारों का भुगतान करने का फैसला किया। कहा जाता है कि जब तूस में उसके द्वारा भेजी गई मुद्रा पहुँची तब शहर से फिरदौसी का जनाजा निकल रहा था। फिरदौसी की बेटी ने राशि लेने से मना कर दिया। अलबरूनी उत्बी फारुखी फिर्दोशी महमूद गजनबी के दरबारी थे संदर्भ और विवरण संपादित करें ↑ दीवान-ए-हाफ़िज़ का एक शेर है - बार-ए-दिले मजनूं व ख़म ए तुर्रे-इ-लैली, रुख़सार ए महमूद कफ़-ए-पाए अयाज़ अस्त। (लैली की जुल्फों के मोड़, मजनूं के दिल का भारीपन जैसे महमूद का चेहरा अयाज के तलवों में हो।)

बाबर कौन था

राजकाल 1526–1530 जन्म 1483 फ़रगना घाटी मृत्यु 26 दिसम्बर, 1530 दफ़न प्रथमतः आगरा, फिर काबुल पूर्वाधिकारी कोई नहीं उत्तराधिकारी हुमायुँ ज़हिर उद-दिन मुहम्मद बाबर (१४ फ़रवरी १४८३ - २६ दिसम्बर १५३०) जो बाबर के नाम से प्रसिद्ध हुआ, एक मुगल शासक था जिसका मूल मध्य एशिया था। वह भारत में मुगल वंश का संस्थापक था। वो तैमूर लंग का परपोता था और विश्वास रखता था कि चंगेज़ ख़ान उसके वंश का पूर्वज था। मुबईयान नामक पद्य शैली का जन्मदाता बाबर को माना जाता है! आरंभिक जीवन संपादित करें Umar Shaykh Mirza, 1875-1900 बाबर का जन्म फ़रगना घाटी के अन्दीझ़ान नामक शहर में हुआ था जो अब उज्बेकिस्तान में है। वो अपने पिता उमर शेख़ मिर्ज़ा, जो फरगना घाटी के शासक थे तथा जिसको उसने एक ठिगने कद के तगड़े जिस्म, मांसल चेहरे तथा गोल दाढ़ी वाले व्यक्ति के रूप में वर्णित किया है, तथा माता कुतलुग निगार खानम का ज्येष्ठ पुत्र था। हालाँकि बाबर का मूल मंगोलिया के बर्लास कबीले से सम्बन्धित था पर उस कबीले के लोगों पर फारसी तथा तुर्क जनजीवन का बहुत असर रहा था, वे इस्लाम में परिवर्तित हुए तथा उन्होने तुर्केस्तान को अपना वासस्थान बनाया। बाबर की मातृभाषा चग़ताई भाषा थी पर फ़ारसी, जो उस समय उस स्थान की आम बोलचाल की भाषा थी, में भी वो प्रवीण था। उसने चगताई में बाबरनामा के नाम से अपनी जीवनी लिखी। मंगोल जाति (जिसे फ़ारसी में मुगल कहते थे) का होने के बावजूद उसकी जनता और अनुचर तुर्क तथा फ़ारसी लोग थे। उसकी सेना में तुर्क, फारसी, पश्तो के अलावा बर्लास तथा मध्य एशियाई कबीले के लोग भी थे। कहा जाता है कि बाबर बहुत ही तगड़ा और शक्तिशाली था। ऐसा भी कहा जाता है कि सिर्फ़ व्यायाम के लिए वो दो लोगों को अपने दोनो कंधों पर लादकर उन्नयन ढाल पर दौड़ लेता था। लोककथाओं के अनुसार बाबर अपने राह में आने वाली सभी नदियों को तैर कर पार करता था। उसने गंगा को दो बार तैर कर पार किया।[1] नाम संपादित करें बाबर के चचेरे भाई मिर्ज़ा मुहम्मद हैदर ने लिखा है कि उस समय, जब चागताई लोग असभ्य तथा असंस्कृत थे तब उन्हे ज़हिर उद-दिन मुहम्मद का उच्चारण कठिन लगा। इस कारण उन्होंने इसका नाम बाबर रख दिया। सैन्य जीवन संपादित करें सन् १४९४ में १२वर्ष की आयु में ही उसे फ़रगना घाटी के शासक का पद सौंपा गया। उसके चाचाओं ने इस स्थिति का फ़ायदा उठाया और बाबर को गद्दी से हटा दिया। कई सालों तक उसने निर्वासन में जीवन बिताया जब उसके साथ कुछ किसान और उसके सम्बंधी ही थे। १४९७ में उसने उज़्बेक शहर समरकंद पर आक्रमण किया और ७ महीनों के बाद उसे जीत भी लिया। इसी बीच, जब वह समरकंद पर आक्रमण कर रहा था तब, उसके एक सैनिक सरगना ने फ़रगना पर अपना अधिपत्य जमा लिया। जब बाबर इसपर वापस अधिकार करने फ़रगना आ रहा था तो उसकी सेना ने समरकंद में उसका साथ छोड़ दिया जिसके फलस्वरूप समरकंद और फ़रगना दोनों उसके हाथों से चले गए। सन् १५०१ में उसने समरकंद पर पुनः अधिकार कर लिया पर जल्द ही उसे उज़्बेक ख़ान मुहम्मद शायबानी ने हरा दिया और इस तरह समरकंद, जो उसके जीवन की एक बड़ी ख्वाहिश थी, उसके हाथों से फिर वापस निकल गया। फरगना से अपने चन्द वफ़ादार सैनिकों के साथ भागने के बाद अगले तीन सालों तक उसने अपनी सेना बनाने पर ध्यान केन्द्रित किया। इस क्रम में उसने बड़ी मात्रा में बदख़्शान प्रांत के ताज़िकों को अपनी सेना में भर्ती किया। सन् १५०४ में हिन्दूकुश की बर्फ़ीली चोटियों को पार करके उसने काबुल पर अपना नियंत्रण स्थापित किया। नए साम्राज्य के मिलने से उसने अपनी किस्मत के सितारे खुलने के सपने देखे। कुछ दिनों के बाद उसने हेरात के एक तैमूरवंशी हुसैन बैकरह, जो कि उसका दूर का रिश्तेदार भी था, के साथ मुहम्मद शायबानी के विरुद्ध सहयोग की संधि की। पर १५०६ में हुसैन की मृत्यु के कारण ऐसा नहीं हो पाया और उसने हेरात पर अपना नियंत्रण स्थापित कर लिया। पर दो महीनों के भीतर ही, साधनों के अभाव में उसे हेरात छोड़ना पड़ा। अपनी जीवनी में उसने हेरात को "बुद्धिजीवियों से भरे शहर" के रूप में वर्णित किया है। वहाँ पर उसे युईगूर कवि मीर अली शाह नवाई की रचनाओं के बारे में पता चला जो चागताई भाषा को साहित्य की भाषा बनाने के पक्ष में थे। शायद बाबर को अपनी जीवनी चागताई भाषा में लिखने की प्रेरणा उन्हीं से मिली होगी। काबुल लौटने के दो साल के भीतर ही एक और सरगना ने उसके ख़िलाफ़ विद्रोह किया और उसे काबुल से भागना पड़ा। जल्द ही उसने काबुल पर पुनः अपना नियंत्रण स्थापित कर लिया। इधर सन् १५१० में फ़ारस के शाह इस्माईल प्रथम, जो सफ़ीवी वंश का शासक था, ने मुहम्मद शायबानी को हराकर उसकी हत्या कर डाली। इस स्थिति को देखकर बाबर ने हेरात पर पुनः नियंत्रण स्थापित किया। इसके बाद उसने शाह इस्माईल प्रथम के साथ मध्य एशिया पर मिलकर अधिपत्य जमाने के लिए एक समझौता किया। शाह इस्माईल की मदद के बदले में उमने साफ़वियों की श्रेष्ठता स्वीकार की तथा खुद एवं अपने अनुयायियों को साफ़वियों की प्रभुता के अधीन समझा। इसके उत्तर में शाह इस्माईल ने बाबर को उसकी बहन ख़ानज़दा से मिलाया जिसे शायबानी, जिसे शाह इस्माईल ने हाल ही में हरा कर मार डाला था, ने कैद में रख़ा हुआ था और उससे विवाह करने की बलात कोशिश कर रहा था। शाह ने बाबर को ऐश-ओ-आराम तथा सैन्य हितों के लिये पूरी सहायता दी जिसका ज़बाब बाबर ने अपने को शिया परम्परा में ढाल कर दिया। उसने शिया मुसलमानों के अनुरूप वस्त्र पहनना आरंभ किया। शाह इस्माईल के शासन काल में फ़ारस शिया मुसलमानों का गढ़ बन गया और वो अपने आप को सातवें शिया इमाम मूसा अल क़ाज़िम का वंशज मानता था। वहाँ सिक्के शाह के नाम में ढलते थे तथा मस्ज़िद में खुतबे शाह के नाम से पढ़े जाते थे हालाँकि क़ाबुल में सिक्के और खुतबे बाबर के नाम से ही थे। बाबर समरकंद का शासन शाह इस्माईल के सहयोगी की हैसियत से चलाता था। शाह की मदद से बाबर ने बुखारा पर चढ़ाई की। वहाँ पर बाबर, एक तैमूरवंशी होने के कारण, लोगों की नज़र में उज़्बेकों से मुक्तिदाता के रूप में देखा गया और गाँव के गाँव उसको बधाई देने के लिए खाली हो गए। इसके बाद फारस के शाह की मदद को अनावश्यक समझकर उसने शाह की सहायता लेनी बंद कर दी। अक्टूबर १५११ में उसने समरकंद पर चढ़ाई की और एक बार फिर उसे अपने अधीन कर लिया। वहाँ भी उसका स्वागत हुआ और एक बार फिर गाँव के गाँव उसको बधाई देने के लिए खाली हो गए। वहाँ सुन्नी मुलसमानों के बीच वह शिया वस्त्रों में एकदम अलग लग रहा था। हालाँकि उसका शिया हुलिया सिर्फ़ शाह इस्माईल के प्रति साम्यता को दर्शाने के लिए थी, उसने अपना शिया स्वरूप बनाए रखा। यद्यपि उसने फारस के शाह को खुश करने हेतु सुन्नियों का नरसंहार नहीं किया पर उसने शिया के प्रति आस्था भी नहीं छोड़ी जिसके कारण जनता में उसके प्रति भारी अनास्था की भावना फैल गई। इसके फलस्वरूप, ८ महीनों के बाद, उज्बेकों ने समरकंद पर फिर से अधिकार कर लिया। उत्तर भारत पर चढ़ाई संपादित करें दिल्ली सल्तनत पर ख़िलज़ी राजवंश के पतन के बाद अराजकता की स्थिति बनी हुई थी। तैमूरलंग के आक्रमण के बाद सैय्यदों ने स्थिति का फ़ायदा उठाकर दिल्ली की सत्ता पर अधिपत्य कायम कर लिया। तैमुर लंग के द्वारा पंजाब का शासक बनाए जाने के बाद खिज्र खान ने इस वंश की स्थापना की थी। बाद में लोदी राजवंश के अफ़ग़ानों ने सैय्यदों को हरा कर सत्ता हथिया ली थी। इब्राहिम लोदी संपादित करें बाबर को लगता था कि दिल्ली सल्तनत पर फिर से तैमूरवंशियों का शासन होना चाहिए। एक तैमूरवंशी होने के कारण वो दिल्ली सल्तनत पर कब्ज़ा करना चाहता था। उसने सुल्तान इब्राहिम लोदी को अपनी इच्छा से अवगत कराया (स्पष्टीकरण चाहिए)। इब्राहिम लोदी के जबाब नहीं आने पर उसने छोटे-छोटे आक्रमण करने आरंभ कर दिए। सबसे पहले उसने कंधार पर कब्ज़ा किया। इधर शाह इस्माईल को तुर्कों के हाथों भारी हार का सामना करना पड़ा। इस युद्ध के बाद शाह इस्माईल तथा बाबर, दोनों ने बारूदी हथियारों की सैन्य महत्ता समझते हुए इसका उपयोग अपनी सेना में आरंभ किया। इसके बाद उसने इब्राहिम लोदी पर आक्रमण किया। पानीपत में लड़ी गई इस लड़ाई को पानीपत का प्रथम युद्ध के नाम से जानते हैं। इसमें बाबर की सेना इब्राहिम लोदी की सेना के सामने बहुत छोटी थी। पर सेना में संगठन के अभाव में इब्राहिम लोदी यह युद्ध बाबर से हार गया। इसके बाद दिल्ली की सत्ता पर बाबर का अधिकार हो गया और उसने सन १५२६ में मुगलवंश की नींव डाली। राजपूत संपादित करें राणा सांगा के नेतृत्व में राजपूत काफी संगठित तथा शक्तिशाली हो चुके थे। राजपूतों ने एक बड़ा-सा क्षेत्र स्वतंत्र कर लिया था और वे दिल्ली की सत्ता पर काबिज़ होना चाहते थे। बाबर की सेना राजपूतों की आधी भी नहीं थी। 17 मार्च 1527 में खानवा की लड़ाई राजपूतों तथा बाबर की सेना के बीच लड़ी गई। राजपूतों का जीतना निश्चित लग रहा था। पर युद्ध के दौरान तोमरों ने राणा सांगा का साथ छोड़ दिया और बाबर से जा मिले। इसके बाद राणा सांगा को भागना पड़ा और एक आसान-सी लग रही जीत उसके हाथों से निकल गई। इसके एक साल के बाद किसी मंत्री द्वारा ज़हर खिलाने कारण राणा सांगा की मौत हो गई और बाबर का सबसे बड़ा डर उसके माथे से टल गया। इसके बाद बाबर दिल्ली की गद्दी का अविवादित अधिकारी बन गया। आने वाले दिनों में मुगल वंश ने भारत की सत्ता पर 300 सालों तक राज किया। बाबर के द्वारा मुगलवंश की नींव रखने के बाद मुगलों ने भारत की संस्कृति पर अपना अमिट छाप छोड़ी। खानवा का युद्ध 1527 में मेवाड़ के शासक राणा सांगा और बाबर के मध्य हुआ था। इस में इब्राहिम लोदी के भाई मेहमूद लोदी ने राणा का साथ दिया दिया था इसमें राणा सांगा की हार हुई थी और बाबर की विजय हुई थी। यही से बाबर ने भारत में रहने का निश्चय किया इस युद्ध में हीं प्रथम बार बाबर ने धर्म युद्ध जेहाद का नारा दिया इसी युद्ध के बाद बाबर ने गाजी अर्थात दानी की उपाधि ली थी अन्तिम दिन संपादित करें कहा जाता है कि अपने पुत्र हुमायुं के बीमार पड़ने पर उसने अल्लाह से हुमायुँ को स्वस्थ्य करने तथा उसकी बीमारी खुद को दिये जाने की प्रार्थना की थी। इसके बाद बाबर का स्वास्थ्य बिगड़ गया और अंततः वो १५३० में ४८ वर्ष की उम्र में मर गया। उसकी इच्छा थी कि उसे काबुल में दफ़नाया जाए पर पहले उसे आगरा में दफ़नाया गया। लगभग नौ वर्षों के बाद हुमायू ने उसकी इच्छा पूरी की और उसे काबुल में दफ़ना दिया।[2][3] मुग़ल सम्राटों का कालक्रम संपादित करें

सीएम योगी आदित्यनाथ का एक और बडे़ काम सुनकर अखिलेश,मुलायम दंग रह गये

" : यूपी के सीएम पद के लिए योगी आदित्यनाथ के नाम की घोषणा होते ही कई विरोधियों को गहरा सदमा लगा था. विपक्ष के कई नेताओं ने पीएम मोदी के इस फैसले की आलोचना करते हुए योगी को मुख्यमंत्री बनाने के फैसले को गलत ठहराया था. वहीँ कई ने नेताओं ने कहा था कि योगी एक अच्छे सीएम नहीं बन पाएंगे क्योंकि उन्हें कोई प्रशासनिक अनुभव ही नहीं है. लेकिन केवल दो ही दिन में योगी ने साबित कर दिया कि ना केवल वो एक अच्छे सीएम हैं बल्कि वो एक लंबी पारी खेलने वाले हैं. सपा सरकार के सभी निगम अध्यक्ष व उपाध्यक्ष बर्खास्त ! सीएम बनते ही योगी आदित्यनाथ ने एक बड़ा फैसला लेते हुए सपा सरकार के सभी निगम अध्यक्षों और उपाध्यक्षों को बर्खास्त कर दिया है. इसे सीएम योगी आदित्यनाथ का अब तक का सबसे बड़ा फैसला बताया जा रहा है. इस फैसले के बाद अब सपा सरकार के 100 से ज्यादा नेताओं की लालबत्ती छिन जाएगी. दरअसल उनके विरोधियों को लगा था कि सीएम की जिम्मेदारियों और कार्यप्रणाली को समझने में ही योगी को कुछ वक़्त लग जाएगा. क्योंकि वो पहली बार मुख्यमंत्री बने हैं इसलिए शायद वो धीरे-धीरे फैसले लेंगे. सब कुछ सीखने में उन्हें वक़्त लगेगा लेकिन विरोधी शायद ये नहीं जानते थे कि योगी पहले भी देश के एक बड़े मठ का कार्यभार संभालते आये हैं, इसके अलावा भी वो पांच बार से सांसद हैं जिससे उन्हें इन कामों का खासा अनुभव हो चुका है." - सीएम योगी आदित्यनाथ के एक और बड़े धमाके से यूपी में खलबली, सन्न रह गए अखिलेश, मुलायम http://tz.ucweb.com/3_1yj2s

UP:मे नये CM का ऐलान पान गुटखा ही नही बंद करने होगें ये भी काम

"यूपी चुनाव के लिए भाजपा ने अपने घोषणापत्र में कई तरह के बड़े वादे किए थे। भाजपा की सरकार बनते ही नए मुख्यमंत्री ने इन वादों को पूरा करना भी शुरू कर दिया है। योगी सरकार सबसे पहला वादा जो पूरा कर रही है वो है अवैध बूचड़खानों को बंद करवाना। इसके अलावा योगी आदित्यनाथ ने अपने संसद के आखिरी भाषण में मंगलवार को कहा कि यूपी में कई चीजें बंद होने वाली हैं। जानिए अवैध बूचड़खानों के अलावा योगी सरकार और क्या-क्या करेगी बंद। पान-गुटखा योगी आदित्यनाथ ने यूपी में पान-गुटखा पर बैन लगा दिया है। योगी आदित्यनाथ लखनऊ में अपने अधिकारियों के साथ बैठक के लिए पहुंचे। वहां उन्होंने अध‌िकारियों के कमरों का न‌िरीक्षण क‌िया। ‌न‌‌िरीक्षण के दौरान योगी को काफी गंदगी द‌िखी ज‌िसे देखकर उन्होंने सरकारी कार्यालयों में पान-गुटखा बैन करने का आदेश द‌िया। अवैध बूचड़खाने अवैध बूचड़खानों पर योगी सरकार ने बड़े फैसले किए हैं। सरकार बनने से लेकर अभी तक कई जिलों में अवैध बूचड़खाने बंद कर दिए हैं। वाराणसी लेकर लखीमपुर खीरी, गजरौला, गाजियाबाद, मेरठ, इलाहाबाद, वाराणसी, अलीगढ़ और आगरा जैसे तमाम शहरों में अवैध बूचड़खानों पर प्रशासन का डंडा चल गया। महिलाओं से छेड़खानी भाजपा ने महिला सुरक्षा को अपना चुनावी मुद्दा बनाया था। हर मंच पर योगी आदित्यनाथ महिला सुरक्षा की बात करते रहे। संकल्प पत्र में बीजेपी ने महिलाओं को छेड़खाने से बचाने के लिए एंटी रोमियो स्क्वायड बनाने का वादा किया था। इस वादे पर भी योगी सरकार ने काम शुरू कर दिया है। मंगलवार को कई जगह कॉलेजों और सार्वजनिक स्थानों पर महिलाओं से छेड़खानी करने वाले मनचलों की धरपकड़ की गई। दंगों पर रोक यूपी में दंगे भी भाजपा का चुनावी मुद्दा रहा। मुजफ्फरनगर दंगों को लेकर खुद योगी आदित्यनाथ ने तत्कालीन सपा सरकार को जिम्मेदार ठहराया। मंगलवार को सदन में अपने आखिरी भाषण में भी योगी ने दंगों पर बात रखी। योगी ने सदन को आश्वस्त किया कि बीजेपी के शासनकाल में यूपी दंगा मुक्त प्रदेश बनेगा। मंगलवार को संसद में योगी ने कहा कि दूसरी सरकारों के रहते पूरे यूपी में बड़ी संख्या में दंगे हुए लेकिन उन्होंने पूर्वी यूपी में एक भी दंगा नहीं होने दिया। फर्जी मुकदमे मोदी समेत बीजेपी के तमाम नेताओं ने पुलिस पर सपा नेताओं के दबाव में काम करने का आरोप लगाया। साथ ही बेकसूरों के खिलाफ फर्जी मुकदमे दर्ज करने के आरोप भी लगे। गुंडागर्दी सपा सरकार पर कानून-व्यवस्था न संभाल पाने का आरोप लगता रहा है। भाजपा ने निवर्तमान अखिलेश सरकार पर गुंडागर्दी और अपराध पर लगाम कसने में नाकाम होने का मुद्दा जोर-शोर से उठाया। योगी चुनाव प्रचार के दौरान भी गुंडागर्दी को यूपी से खत्म करने का दावा करते रहे हैं। सीएम पद की शपथ लेने से पहले ही योगी ने डीजीपी के साथ मीटिंग की थी। इस मीटिंग योगी ने शपथ ग्रहण समारोह में किसी भी प्रकार की हुड़दंग को रोकने के सख्त आदेश दिए थे। शराब योगी ने यूपी को पीएम मोदी के सपनों का प्रदेश बनाने का आश्वासन दिया है। खबर कि गुजरात मॉडल को यूपी में लागू किया जा सकता है। अगर ऐसा होता है तो यूपी में भी योगी गुजरात और बिहार की तर्ज पर शराबबंदी लागू कर सकते हैं। बता दें कि शराबबंदी के लिए पीएम मोदी ने बिहार के मुख्यमंत्री नीतीश कुमार की सार्वजनिक मंच से प्रशंसा की थी। पलायन योगी ने सदन में कहा कि यूपी को विकास की राह पर ले जाया जाएगा। उन्होंने दावा किया कि यूपी में इतना विकास होगा कि वहां के नौजवानों को अपना घर नहीं छोड़ना पड़ेगा। अवैध खनन प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी से लेकर बीजेपी के राष्ट्रीय अध्यक्ष अमित शाह यूपी में चुनावी रैलियों के दौरान अवैध खनन का मुद्दा उठा चुके हैं। ऐसे में पीएम मोदी के आदर्शों पर चलने का दावा करने वाले योगी आदित्यनाथ अवैध खनन पर चोट कर सकते हैं।" - http://tz.ucweb.com/3_1wQ5J

राम मंदिर की पुरी कहानी

बाबरी मस्जिद बुर्किना फासो के शहर के लिये, बाबरी, बुर्किना फासो देखें। बाबरी मस्जिद निर्देशांक: 26°47′44″N 82°11′40″E / 26.7956°N 82.1945°E स्थान अयोध्या, भारत स्थापित निर्माण -1527 विध्वंस - 1992 वास्तु संबंधित सूचनायें वास्तु शैली तुग़लकी बाबरी मस्जिद उत्तर प्रदेश के फैजाबाद जिले के अयोध्या शहर में रामकोट पहाड़ी ("राम का किला") पर एक मस्जिद थी। रैली के आयोजकों द्वारा मस्जिद को कोई नुकसान नहीं पहुंचाने देने की भारत के सर्वोच्च न्यायालय से वचनबद्धता के बावजूद, 1992 में 150,000 लोगों की एक हिंसक रैली[1] के दंगा में बदल जाने से यह विध्वस्त हो गयी।[2][3] मुंबई और दिल्ली सहित कई प्रमुख भारतीय शहरों में इसके फलस्वरूप हुए दंगों में 2,000 से अधिक लोग मारे गये।[4] भारत के प्रथम मुगल सम्राट बाबर के आदेश पर 1527 में इस मस्जिद का निर्माण किया गया था।[5][6] पुजारियों से हिन्दू ढांचे या निर्माण को छीनने के बाद मीर बाकी ने इसका नाम बाबरी मस्जिद रखा. 1940 के दशक से पहले, मस्जिद को मस्जिद-इ-जन्मस्थान (हिन्दी: मस्जिद ए जन्मस्थान,उर्दू: مسجدِ جنمستھان, अनुवाद: "जन्मस्थान की मस्जिद") कहा जाता था, इस तरह इस स्थान को हिन्दू ईश्वर, भगवान राम की जन्मभूमि के रूप में स्वीकार किया जाता रहा है।[7] पुजारियों से हिन्दू ढांचे को छीनने के बाद मीर बाकी ने इसका नाम बाबरी मस्जिद रखा. बाबरी मस्जिद उत्तर प्रदेश, भारत के इस राज्य में 3 करोड़ 10 लाख मुस्लिम रहा करते हैं, की सबसे बड़ी मस्जिदों में से एक थी।[8] हालांकि आसपास के जिलों में और भी अनेक पुरानी मस्जिदें हैं, जिनमे शरीकी राजाओं द्वारा बनायी गयी हज़रत बल मस्जिद भी शामिल है, लेकिन विवादित स्थल के महत्व के कारण बाबरी मस्जिद सबसे बड़ी बन गयी। इसके आकार और प्रसिद्धि के बावजूद, जिले के मुस्लिम समुदाय द्वारा मस्जिद का उपयोग कम ही हुआ करता था और अदालतों में हिंदुओं द्वारा अनेक याचिकाओं के परिणामस्वरूप इस स्थल पर राम के हिन्दू भक्तों का प्रवेश होने लगा. बाबरी मस्जिद के इतिहास और इसके स्थान पर तथा किसी पहले के मंदिर को तोड़कर या उसमें बदलाव लाकर इसे बनाया गया है या नहीं, इस पर चल रही राजनीतिक, ऐतिहासिक और सामाजिक-धार्मिक बहस को अयोध्या बहस के नाम से जाना जाता है। मस्जिद की वास्तुकला संपादित करें इस मस्जिद की वास्तुकला मंदिरों या घरेलू शैलियां से विकसित हुईं, जो कि वहां की जलवायु, भूभाग, सामग्रियों द्वारा अनुकूलित थे; इसीलिए बंगाल, कश्मीर और गुजरात की मस्जिदों में भारी अंतर है। बाबरी मस्जिद ने जौनपुर की स्थापत्य पद्धति का अनुकरण किया। एक विशिष्ट शैली की एक महत्वपूर्ण मस्जिद बाबरी मुख्यतया वास्तुकला में संरक्षित रही, जिसे दिल्ली सल्तनत की स्थापना (1192) के बाद विकसित किया गया था। हैदराबाद के चारमीनार (1591) चौक के बड़े मेहराब, तोरण पथ और मीनार बहुत ही खास हैं। इस कला में पत्थर का व्यापक उपयोग किया गया है और 17वीं सदी में मुगल कला के स्थानांतरित होने तक जैसा कि ताजमहल जैसी संरचनाओं द्वारा दिखाई पड़ता है; मुसलमानों के शासन में भारतीय अनुकूलन प्रतिबिंबित होता है। एक संलग्न आंगन के साथ परंपरागत हाइपोस्टाइल योजना पश्चिमी एशिया से आयात की गयी, जो आम तौर पर नए क्षेत्रों में इस्लाम के प्रवेश के साथ जुड़ी हुई है, लेकिन बाद में स्थानीय आबोहवा और जरुरत के हिसाब से अधिक उपयुक्त योजनाओं के कारण इसे त्याग दिया गया। बाबरी मस्जिद स्थानीय प्रभाव और पश्चिम एशियाई शैली का मिश्रण थी और भारत में इस प्रकार की मस्जिदों के उदाहरण आम हैं। तीन गुंबदों के साथ बाबरी मस्जिद की भव्य संरचना थी, तीन गुंबदों में से एक प्रमुख था और दो गौण. यह दो ऊंची दीवारों से घिरा हुआ था, जो एक दूसरे के समानांतर थीं और एक कुएं के साथ एक बड़ा-सा आंगन संलग्न था, उस कुएं को उसके ठंडे व मीठे जल के लिए जाना जाता है। गुंबददार संरचना के ऊंचे प्रवेश द्वार पर दो शिलालेख लगे हुए हैं जिनमे फ़ारसी भाषा में दो अभिलेख दर्ज हैं, जो घोषित करते हैं कि बाबर के आदेश पर किसी मीर बाक़ी ने इस संरचना का निर्माण किया। बाबरी मस्जिद की दीवारें भौंडे सफेद रेतीले पत्थर के खंडों से बने हैं, जिनके आकार आयताकार हैं, जबकि गुंबद पतले और छोटे पके हुए ईंटों के बने हैं। इन दोनों संरचनात्मक उपादानों को दानेदार बालू के साथ मोटे चून के लसदार मिश्रण से पलस्तर किया गया है। मध्य आंगन बड़ी मात्रा में वक्र स्तंभों से घिरा हुआ था, छत की ऊंचाई बढ़ाने के लिए ऐसा किया गया था। योजना और वास्तुकला जहांपनाह की बेगमपुर की शुक्रवार मस्जिद से प्रभावित थी, न कि मुगल शैली से, जहां हिंदू राजमिस्त्री अपनी सीधी संरचनात्मक और सजावटी परंपराओं का इस्तेमाल किया करते थे। उनकी दस्तकारी की उत्कृष्टता उनके वानस्पतिक इमारती सजावट और कमल आकृति में साफ दिखती है। ये बेलबूटे फिरोजाबाद के फिरोज शाह मस्जिद (ई.सं. 1354), जो अब एक उजड़ी हुई स्थिति में है, किला कुहना मस्जिद (ई.सं. 1540), दीवार गौड़ शहर के दक्षिणी उपनगर की दरसबरी मस्जिद और शेरशाह सूरी द्वारा निर्मित जमाली कामिली मस्जिद में भी मौजूद हैं। यह अकबर द्वारा अपनाई गयी भारत-इस्लामी शैली का अग्रवर्ती था। बाबरी मस्जिद ध्वनिक और शीतलन प्रणाली संपादित करें लॉर्ड विलियम बैन्टिक (1828–1833) के वास्तुकार ग्राहम पिकफोर्ड के अनुसार "बाबरी मस्जिद के मेहराब से एक कानाफूसी भी दूसरे छोर से, 200 फीट [60 मी] दूर और मध्य आंगन की लंबाई और चौडाई से, सुनी जा सकती है।" उनकी पुस्तक "हिस्टोरिक स्ट्रक्चर्स ऑफ़ अवध" (अवध अर्थात अयोध्या) में उन्होंने मस्जिद की ध्वनिकी का उल्लेख किया है, जहां वे कहते हैं "किसी 16वीं सदी की इमारत में मंच से आवाज का फैलाव और प्रक्षेपण अत्यधिक उन्नत है, इस संरचना में ध्वनि का अद्वितीय फैलाव आगंतुक को चकित कर देगा." आधुनिक वास्तुकारों ने इस ध्वनिक विशेषता के लिए मेहराब की दीवार में बड़ी खाली जगह और चारों ओर की दीवारों में अनेक खाली जगहों को श्रेय दिया है, जो अनुनादक परिपथ के रूप में काम करती हैं; इस डिजाइन ने मेहराब के वक्ता को सुनने में सबकी मदद की। बाबरी मस्जिद के निर्माण में इस्तेमाल किये गये रेतीले पत्थर भी अनुनादक किस्म के थे, जिनका अद्वितीय ध्वनिकी में महत्त्वपूर्ण योगदान रहा. बाबरी मस्जिद की तुगलकी शैली अन्य स्वदेशी डिजाइन घटकों और तकनीक के साथ एकीकृत हुई, जैसे कि मेहराब, मेहराबी छत और गुम्बज जैसे इस्लामी वास्तुशिल्प तत्वों के आवरण में वातानुकूलित प्रणाली। बाबरी मस्जिद की एक शांतिपूर्ण पर्यावरण नियंत्रण प्रणाली में ऊंची छतें, गुम्बज और छः बड़ी जालीदार झरोखे शामिल रहे थे। यह प्रणाली प्राकृतिक रूप से अंदरुनी भाग को ठंडा रखने और साथ ही सूर्य के प्रकाश को आने में मदद करती थी। इतिहास संपादित करें हिंदू व्याख्या संपादित करें 1527 में फरगना से जब मुस्लिम सम्राट बाबर आया तो उसने सिकरी में चित्तौड़गढ़ के हिंदू राजा राणा संग्राम सिंह को तोपखाने और गोला-बारूद का इस्तेमाल करके हराया। इस जीत के बाद, बाबर ने उस क्षेत्र पर कब्जा कर लिया, उसने अपने सेनापति मीर बाकी को वहां का सूबेदार बना दिया. मीर बाकी ने अयोध्या में बाबरी मस्जिद का निर्माण कर इसका नामकरण सम्राट बाबर के नाम पर किया।[9] बाबर के रोजनामचा बाबरनामा में वहां किसी नई मस्जिद का जिक्र नहीं है, हालांकि रोजमानचे में उस अवधि से संबंद्ध पन्ने गायब हैं। समकालीन तारीख-ए-बाबरी कहता है कि बाबर की सेना ने "चंदेरी में बहुत सारे हिंदू मंदिरों को ध्वस्त कर दिया था।"[10] 1992 में ध्वस्त ढांचे के मलबे से निकले एक मोटे पत्थर के खंड के अभिलेख से उस स्थल पर एक पुराने हिंदू मंदिर के पैलियोग्राफिक (लेखन के प्राचीनकालीन रूप के अध्ययन) प्रमाण प्राप्त हुए। विध्वंस के दिन 260 से अधिक अन्य कलाकृतियां और प्राचीन हिंदू मंदिर का हिस्सा होने के और भी बहुत सारे तथ्य भी निकाले गये। शिलालेख में 20 पंक्तियां, 30 श्लोक (छंद) हैं और इसे संस्कृत में नागरी लिपि में लिखा गया है। ग्यारहवीं और बारहवीं शताब्दी में 'नागरी लिपि' प्रचलित थी। प्रो॰ ए. एम. शास्त्री, डॉ॰ के. वी. रमेश, डॉ॰ टी. पी. वर्मा, प्रो॰ बी.आर. ग्रोवर, डॉ॰ ए.के. सिन्हा, डॉ॰ सुधा मलैया, डॉ॰ डी. पी. दुबे और डॉ॰ जी. सी. त्रिपाठी समेत पुरालेखवेत्ताओं, संस्कृत विद्वानों, इतिहासकारों और पुरातत्वविदों के दल द्वारा गूढ़ लेखों के रूप में संदेश के महत्वपूर्ण भाग को समझा गया। शुरू के बीस छंद राजा गोविंद चंद्र गढ़वाल (1114-1154 ई.) और उनके वंश की प्रशंसा करते हैं। इक्कीसवां छंद इस प्रकार कहता है: "वामन अवतार (बौने ब्राह्मण के रूप में विष्णु के अवतार) के चरणों में शीश नवाने के बाद अपनी आत्मा की मुक्ति के लिए राजा ने विष्णु हरि (श्री राम) के अद्भुत मंदिर के लिए संगमरमर के खंबे और आकाश तक पहुंचनेवाले पत्थर की संरचना का निर्माण करने और शीर्ष चूड़ा को बहुत सारे सोने से मढ़ दिया और वाण का मुंह आकाश की ओर करके इसे पूरा किया - यह एक ऐसा भव्य मंदिर है जैसा इससे पहले देश के इतिहास में किसी राजा ने नहीं बनाया." इसमें आगे भी कहा गया है कि यह मंदिर, मंदिरों के शहर अयोध्या में बनाया गया था। एक अन्य सन्दर्भ में, एक महंत रघुबर दास द्वारा दायर शिकायत पर फैजाबाद के जिला न्यायाधीश ने 18 मार्च 1886 को फैसला सुनाया था। हालांकि शिकायत को खारिज कर दिया गया था, फिर भी फैसले में दो प्रासंगिक तथ्य निकल कर आए: "मैंने पाया कि सम्राट बाबर द्वारा निर्मित मस्जिद अयोध्या नगर की सीमा पर स्थित है। सबसे दुर्भाग्यपूर्ण बात यह है कि मस्जिद ऐसी विशेष जमीन पर बनायी गयी है कि जो हिंदुओं द्वारा पूज्य है, लेकिन चूंकि यह घटना 358 साल पहले की है, इसीलिए इस शिकायत के प्रतिकार के लिए अब बहुत देर हो चुकी है। जो किया जा सकता है वह यह कि सभी पक्षों द्वारा यथास्थिति को बनाए रखा जाए। ऐसे किसी मामले में जैसा कि वर्तमान मामला है, किसी भी तरह का नवप्रवर्तन लाभ के बजाए और भी अधिक नुकसान और शांति में खलल पैदा करेगा।" जैन व्याख्या संपादित करें जैनियों के सामाजिक संगठन जैन समता वाहिनी के अनुसार, "उत्खनन के दौरान अगर कोई संरचना यहां मिलती है तो वह केवल छठी सदी का जैन मंदिर ही हो सकता है।" जैन समता वाहिनी के महासचिव सोहन मेहता का दावा है कि बाबरी मस्जिद-राम जन्मभूमि विवाद सुलझाने के लिए इलाहाबाद उच्च न्यायालय के आदेश पर एएसआई द्वारा किया गया उत्खनन इस बात को प्रमाणित कर देता है कि विवादित ध्वस्त ढांचा वास्तव में, एक प्राचीन जैन मंदिर के अवशेष पर बनाया गया था। मेहता 18वीं शताब्दी के जैन भिक्षुओं की रचानाओं का उल्लेख करते हुए कहते हैं कि अयोध्या वह जगह हैं जहां पांच जैन तीर्थंकर, ऋषभदेव, अजितनाथ, अभिनंदननाथ, सुमतिनाथ और अनंतनाथ रहा करते थे। 1527 से पहले यह प्राचीन शहर जैन धर्म और बौद्ध धर्म के पांच बड़े केंद्रों में से एक रहा है।[11] मुस्लिम व्याख्या संपादित करें ऐसा कोई ऐतिहासिक रिकॉर्ड इस तथ्य की ओर संकेत नहीं करता है कि 1528 में जब मीर बाकी ने मस्जिद स्थापित की, उस समय यहां अस्तित्व में रहे किसी हिंदू मंदिर का विध्वंस किया गया था। 23 दिसम्बर 1949 को जब अवैध रूप से मस्जिद में राम की मूर्तियों को रखा गया, तब प्रधान मंत्री जवाहरलाल नेहरू ने यूपी के मुख्यमंत्री जेबी पंत को पत्र लिखकर उस गडबडी को सुधारने की मांग की; क्योंकि "इससे वहां एक खतरनाक मिसाल स्थापित होती है।" स्थानीय प्रशासक, फैजाबाद उपायुक्त के. के. नायर ने नेहरू की चिंताओं को खारिज कर दिया. हालांकि उन्होंने स्वीकार किया कि मूर्तियों की स्थापना "एक अवैध कार्य थी", नायर ने मस्जिद से उन्हें हटाने से मना करते हुए यह दावा किया कि "इस गतिविधि के पीछे जो गहरी भावना है।.. उसे कम करके नहीं आंका जाना चाहिए." 2010 में, हिंदू धर्मग्रंथों का हवाला देते हुए हजारों पृष्ठों के फैसले में उच्च न्यायालय ने जमीन का दो-तिहाई हिंदू मंदिर को दे दिया, लेकिन 1949 के अधिनियम की अवैधता की जांच में बहुत कम प्रयास किये गये। मनोज मिट्टा के अनुसार, "एक तरह से मस्जिद को मंदिर में तब्दील करने के लिए मूर्तियों के साथ छेड़छाड़ किया जाना, स्वत्वाधिकार मुकदमा के अधिनिर्णय का केंद्र था।"[12] मुसलमानों और अन्य आलोचकों का दावा है कि पुरातत्व रिपोर्ट जो कि राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ (आरएसएस), विश्व हिंदू परिषद (विहिप) और हिंदू मुन्नानी जैसे अतिवादी हिंदू संगठनों द्वारा बाबरी मस्जिद स्थल पर किए गए दावे पर भरोसा करके तैयार किये गए हैं, वे राजनीति से प्रेरित है। आलोचकों का कहना है कि एएसआई (ASI) द्वारा "हर जगह पशु की हड्डियों के साथ-साथ 'सुर्खी' और चूना-गारा पाया गया", ये सभी मुसलमानों की मौजूदगी के लक्षण है जो कि "बाबरी मस्जिद के नीचे हिंदू मंदिर की संभावना को खारिज करते हैं," लेकिन रिपोर्ट में 'खंभों की बुनियाद' के आधार पर दावा किया जाना इसके साथ "साफ तौर पर धोखाधड़ी" है क्योंकि कोई खंभा नहीं पाया गया और कथित तौर पर खंभे की बुनियाद के अस्तित्व पर पुरातत्वविदों द्वारा तर्क-वितर्क किया गया है[13]. ब्रिटिश व्याख्या संपादित करें "1526 में पानीपत में विजय प्राप्त करने के बाद बाबर के कदम हिंदुस्तान पर पड़े और अफगानी वंश के लोधी को परास्त कर वर्तमान संयुक्त प्रांत के पूर्वी जिलों और मध्य दोआब, अवध पर कब्जा करते हुए वह आगरा की ओर बढ़ा. 1527 में, बाबर के मध्य भारत से लौटने पर, कन्नौज के पास दक्षिणी अवध में उसने अपने विरोधियों को हरा दिया और प्रांत को पार करते हुए बहुत दूर तक जाते हुए अयोध्या तक पहुंच गया, जहां उसने 1528 में एक मस्जिद का निर्माण किया। 1530 में बाबर की मृत्यु के बाद अफगान बादशाह विपक्षी बने रहे, लेकिन अगले वर्ष लखनऊ के पास उन्हें हरा दिया." इम्पीरियल गजट ऑफ इंडिया 1908 भाग XIX पृष्ठ 279-280 स्थल को लेकर संघर्ष संपादित करें आधुनिक समय में इस मसले पर हिंदुओं और मुसलमानों के बीच हिंसा की पहली घटना 1853 में अवध के नवाब वाजिद अली शाह के शासनकाल के दौरान दर्ज की गयी। निर्मोही नामक एक हिंदू संप्रदाय ने ढांचे पर दावा करते हुए कहा कि जिस स्थल पर मस्जिद खड़ा है वहां एक मंदिर हुआ करता था, जिसे बाबर के शासनकाल के दौरान नष्ट कर दिया गया था। अगले दो वर्षों में इस मुद्दे पर समय-समय पर हिंसा भड़की और नागरिक प्रशासन को हस्तक्षेप करते हुए इस स्थल पर मंदिर का निर्माण करने या पूजा करने की अनुमति देने से इंकार करना पड़ा. फैजाबाद जिला गजट 1905 के अनुसार, "इस समय (1855) तक, हिंदू और मुसलमान दोनों एक ही इमारत में इबादत या पूजा करते रहे थे। लेकिन विद्रोह (1857) के बाद, मस्जिद के सामने एक बाहरी दीवार डाल दी गयी और हिंदुओं को अदंरुनी प्रांगण में जाने, वेदिका (चबूतरा), जिसे उन लोगों ने बाहरी दीवार पर खड़ा किया था, पर चढ़ावा देने से मना कर दिया गया।" 1883 में इस चबूतरे पर मंदिर का निर्माण करने की कोशिश को उपायुक्त द्वारा रोक दिया गया, उन्होंने 19 जनवरी 1885 को इसे निषिद्ध कर दिया. महंत रघुवीर दास ने उप-न्यायाधीश फैजाबाद की अदालत में एक मामला दायर किया। 17 फीट x 21 फीट माप के चबूतरे पर पंडित हरिकिशन एक मंदिर के निर्माण की अनुमति मांग रहे थे, लेकिन मुकदमे को बर्खास्त कर दिया गया। एक अपील फैजाबाद जिला न्यायाधीश, कर्नल जे.ई.ए. चमबिअर की अदालत में दायर किया गया, स्थल का निरीक्षण करने के बाद उन्होंने 17 मार्च 1886 को इस अपील को खारिज कर दिया. एक दूसरी अपील 25 मई 1886 को अवध के न्यायिक आयुक्त डब्ल्यू. यंग की अदालत में दायर की गयी थी, इन्होंने भी इस अपील खारिज कर दिया. इसी के साथ, हिंदुओं द्वारा लड़ी गयी पहले दौर की कानूनी लड़ाई का अंत हो गया। 1934 के "सांप्रदायिक दंगों" के दौरान, मस्जिद के चारों ओर की दीवार और मस्जिद के गुंबदों में एक गुंबद क्षतिग्रस्त हो गया था। ब्रिटिश सरकार द्वारा इनका पुनर्निर्माण किया गया। मस्जिद और गंज-ए-शहीदन कब्रिस्तान नामक कब्रगाह से संबंधित भूमि को वक्फ क्र. 26 फैजाबाद के रूप में यूपी सुन्नी केंद्रीय वक्फ (मुस्लिम पवित्र स्थल) बोर्ड के साथ 1936 के अधिनियम के तहत पंजीकृत किया गया था। इस अवधि के दौरान मुसलमानों के उत्पीड़न की पृष्ठभूमि की क्रमशः 10 और 23 दिसम्बर 1949 की दो रिपोर्ट दर्ज करके वक्फ निरीक्षक मोहम्मद इब्राहिम द्वारा वक्फ बोर्ड के सचिव को दिया गया था। पहली रिपोर्ट कहती है "मस्जिद की तरफ जानेवाले किसी भी मुस्लिम टोका गया और नाम वगैरह ... लिया गया। वहां के लोगों ने मुझे बताया कि हिंदुओं से मस्जिद को खतरा है।.. जब नमाजी (नमाज अदा करने वाले) लौट कर जाने लगते है तो उनकी तरफ आसपास के घरों के जूते और पत्थर फेंके जाते हैं। मुसलमान भय के कारण एक शब्द भी नहीं कहते. रघुदास के बाद लोहिया ने अयोध्या का दौरा किया और वहां भाषण दिया ... कब्र को नुकसान मत पहुंचाइए... बैरागियों ने कहा मस्जिद जन्मभूमि है और इसलिए इसे हमें दे दें... मैंने अयोध्या में एक रात बिताई और बैरागी जबरन मस्जिद पर कब्जा करने लगे... .." 22 दिसम्बर 1949 की आधी रात को जब पुलिस गार्ड सो रहे थे, तब राम और सीता की मूर्तियों को चुपचाप मस्जिद में ले जाया गया और वहां स्थापित कर दिया गया। अगली सुबह इसकी खबर कांस्टेबल माता प्रसाद द्वारा दी गयी और अयोध्या पुलिस थाने में इसकी सूचना दर्ज की गयी। 23 दिसम्बर 1949 को अयोध्या पुलिस थाने में सब इंस्पेक्टर राम दुबे द्वारा प्राथमिकी दर्ज कराते हुए कहा गया: "50-60 व्यक्तियों के एक दल ने मस्जिद परिसर के गेट का ताला तोड़ने के बाद या दीवारों को फांद कर बाबरी मस्जिद में प्रवेश किया। . और वहां श्री भगवान की मूर्ति की स्थापना की तथा बाहरी और अंदरुनी दीवार पर गेरू (लाल दूमट) से सीता-राम का चित्र बनाया गया ... उसके बाद, 5-6 हजार लोगों की भीड़ आसपास इकट्ठी हुई तथा भजन गाते और धार्मिक नारे लगाते हुए मस्जिद में प्रवेश करने की कोशिश करने लगी, लेकिन रोक दिए गए।" अगली सुबह, हिंदुओं की बड़ी भीड़ ने भगवानों को प्रसाद चढ़ाने के लिए मस्जिद में प्रवेश करने का प्रयास किया। जिला मजिस्ट्रेट के.के. नायर ने दर्ज किया है कि "यह भीड़ जबरन प्रवेश करने की कोशिश करने के लिए पूरी तरह से दृढ़ संकल्प थी। ताला तोड़ डाला गया और पुलिसवालों को धक्का देकर गिरा दिया गया। हममें से सब अधिकारियों और दूसरे लोगों ने किसी तरह भीड़ को पीछे की ओर खदेड़ा और फाटक को बंद किया। पुलिस और हथियारों की परवाह न करते हुए साधु एकदम से उन पर टूट पड़े और तब बहुत ही मुश्किल से हमलोगों ने किसी तरह से फाटक को बंद किया। फाटक सुरक्षित था और बाहर से लाये गए एक बहुत ही मजबूत ताले से उसे बंद कर दिया गया तथा पुलिस बल को सुदृढ़ किया गया (शाम 5:00 बजे)." इस खबर को सुनकर प्रधान मंत्री जवाहर लाल नेहरू ने यूपी के मुख्यमंत्री गोविंद बल्लभ पंत को यह निर्देश दिया कि वे यह देखें कि देवताओं को हटा लिया जाए. पंत के आदेश के तहत मुख्य सचिव भगवान सहाय और फैजाबाद के पुलिस महानिरीक्षक वी.एन. लाहिड़ी ने देवताओं को हटा लेने के लिए फैजाबाद को तत्काल निर्देश भेजा. हालांकि, के.के. नायर को डर था कि हिंदू जवाबी कार्रवाई करेंगे और आदेश के पालन को अक्षम करने की पैरवी करेंगे. 1984 में, विश्व हिंदू परिषद (विहिप) ने मस्जिद के ताले को खुलवाने के लिए बड़े पैमाने पर आंदोलन शुरू किया और 1985 में राजीव गांधी की सरकार ने अयोध्या में राम जन्मभूमि-बाबरी मस्जिद का ताला खोल देने का आदेश दिया. उस तारीख से पहले केवल हिन्दू आयोजन की अनुमति थी, जिसमें हिंदू पुरोहित मूर्तियों की सालाना पूजा करते थे। इस फैसले के बाद, सभी हिंदुओं को, जो इसे राम का जन्मस्थान मानते थे, वहां तक जाने की अनुमति मिल गयी और मस्जिद को एक हिंदू मंदिर के रूप में कुछ अधिकार मिल गया।[14] क्षेत्र में सांप्रदायिक तनाव तब बहुत अधिक बढ़ गया जब नवंबर 1989 में राष्ट्रीय चुनाव से पहले विहिप को विवादित स्थल पर शिलान्यास (नींव स्थापना समारोह) करने की अनुमति प्राप्त हो गई। वरिष्ठ भाजपा नेता लालकृष्ण आडवाणी ने एक रथ पर सवार होकर दक्षिण से अयोध्या तक की 10,000 किमी की यात्रा की शुरूआत की. भारतीय पुरातत्व सर्वेक्षण की रिपोर्ट संपादित करें 1970, 1992 और 2003 में भारतीय पुरातत्व सर्वेक्षण (एएसआई) द्वारा विवादित स्थल के आसपास की गयी खुदाई से उस स्थल पर हिंदू परिसर मौजूद होने का संकेत मिला है। 2003 में, भारतीय अदालत द्वारा दिए गए आदेश पर भारतीय पुरातत्व सर्वेक्षण को इसका और अधिक गहन अध्ययन करने तथा मलबे के नीचे विशेष तरह की संचरना की खुदाई करने को कहा गया।[15] एएसआई का रिपोर्ट सारांश[16] मस्जिद के नीचे मंदिर के सबूत होने के निश्चित संकेत देता है। एएसआई शोधकर्ताओं के शब्दों में, उनलोगों ने "उत्तर भारत के मंदिरों से जुड़ी... विशिष्टताओं की" खोज की. खुदाई का नतीजा: “ stone and decorated bricks as well as mutilated sculpture of a divine couple and carved architectural features, including foliage patterns, amalaka, kapotapali, doorjamb with semi-circular shrine pilaster, broke octagonal shaft of black schist pillar, lotus motif, circular shrine having pranjala (watershute) in the north and 50 pillar bases in association with a huge structure"[17] ” आलोचना संपादित करें सफदर हाशमी मेमोरियल ट्रस्ट (सहमत) ने रिपोर्ट की आलोचना यह कहते हुए की कि "हर तरफ पशु हड्डियों के साथ ही साथ सुर्खी और चूना-गारा की मौजूदगी" जो भारतीय पुरातत्व सर्वेक्षण को मिला, ये सब मुसलमानों की उपस्थिति के लक्षण हैं "जो कि मस्जिद के नीचे हिंदू मंदिर के होने की बात को खारिज कर देती है" लेकिन 'खंबों की बुनियाद' के आधार पर रिपोर्ट कुछ और दावा करती है जो कि अपने निश्चयन में "स्पष्टतः धोखाधड़ी" है क्योंकि कोई खंबा नहीं मिला है और पुरातत्वविदों के बीच उस तथाकथित 'खंबे की बुनियाद' के अस्तित्व पर बहस जारी है[13]. ऑल इंडिया मुस्लिम पर्सनल लॉ बोर्ड (एआइएमपीएलबी) के अध्यक्ष सैयद रबे हसन नदवी ने बताया कि एएसआई अपनी अंतरिम रिपोर्ट में किसी मंदिर के कोई सबूत का उल्लेख करने में विफल रहा है और राष्ट्रीय तनाव के समय के दौरान केवल अंतिम रिपोर्ट में इसका उल्लेख किया गया, जिससे रिपोर्ट बहुत ही सदिग्ध बन जाती है।[18]. हालांकि, न्यायाधीश अग्रवाल, एक न्यायाधीश जिन्होंने क्षेत्र का विभाजन किया, कहते हैं कि बहुत सारे "स्वतंत्र इतिहासकारों" ने तथ्‍यों के मामले में "शुतुरमुर्ग जैसे रवैए" का प्रदर्शन किया और वास्तव में जब उनको "जांचा गया तो पता चला" कि इस विषय पर किसी तरह की विशेषज्ञता का उनमें अभाव था। इसके अलावा, ज्यादातर "विशेषज्ञ" परस्पर आपस में जुड़े पाए गए: या तो उनलोगों ने खबरों को पढ़कर अपनी विशेषज्ञता को तैयार किया या फिर वक्फ बोर्ड के लिए "विशेषज्ञ गवाह" की तरह उनका किसी अन्य व्यावसायिक संगठनो के साथ जुड़ाव है।[19] ढांचे के नीचे मंदिर (हिंदू मंदिर) पर भारतीय पुरातत्व सर्वेक्षण के निष्कर्ष की जांच करते हुए विहिप और आरएसएस, मुसलमानों से यह मांग करते हुए आगे आए कि उत्तर भारतीयों की तीन पवित्रतम मंदिर हिंदुओं को सौंप दी जाए.[17] विध्वंस संपादित करें 6 दिसम्बर 1992 भारत सरकार द्वारा बाबरी मस्जिद विध्वंस के लिए बनी परिस्थितियों की जांच करने के लिए लिब्रहान आयोग का गठन किया गया। विभिन्न सरकारों द्वारा 48 बार अतिरिक्त समय की मंजूरी पाने वाला, भारतीय इतिहास में सबसे लंबे समय तक काम करनेवाला यह आयोग है। इस घटना के l6 सालों से भी अधिक समय के बाद 30 जून 2009 को आयोग ने प्रधान मंत्री मनमोहन सिंह को अपनी रिपोर्ट सौंपी.[20] रिपोर्ट की सामग्री नवंबर 2009 को समाचार मीडिया में लीक हो गयी। मस्जिद के विध्वंस के लिए रिपोर्ट ने भारत सरकार के उच्च पदस्थ अधिकारियों और हिंदू राष्ट्रवादियों को दोषी ठहराया. इसकी सामग्री भारतीय संसद में हंगामे का कारण बनी. 6 दिसम्बर 1992 को कार सेवकों द्वारा बाबरी मस्जिद विध्वंस के दिन जो कुछ भी हुआ था, लिब्रहान रिपोर्ट ने उन सिलसिलेवार घटनाओं के टुकड़ों कों एक साथ गूंथा था। रविवार की सुबह लालकृष्ण आडवाणी और अन्य लोगों ने विनय कटियार के घर पर मुलाकात की. रिपोर्ट कहती है कि इसके बाद वे विवादित ढांचे के लिए रवाना हुए. आडवाणी, मुरली मनोहर जोशी और कटियार पूजा की वेदी पर पहुंचे, जहां प्रतीकात्मक रूप से कार सेवा होनी थी, फिर आडवाणी और जोशी ने अगले 20 मिनट तक तैयारियों का निरीक्षण किया। इसके बाद दोनो वरिष्ठ नेता 200 मीटर की दूरी पर राम कथा कुंज के लिए रवाना हो गए। यह वह इमारत है जो विवादित ढांचे के सामने थी, जहां वरिष्ठ नेताओं के लिए एक मंच का निर्माण किया गया था। दोपहर में, एक किशोर कार सेवक कूद कर गुंबद के ऊपर पहुंच गया और उसने बाहरी घेरे को तोड़ देने का संकेत दिया. रिपोर्ट कहती है कि इस समय आडवाणी, जोशी और विजय राजे सिंधिया ने "... या तो गंभीरता से या मीडिया का लाभ उठाने के लिए कार सेवकों से उतर आने का औपचारिक अनुरोध किया। पवित्र स्थान के गर्भगृह में नहीं जाने या ढांचे को न तोड़ने की कार सेवकों से कोई अपील नहीं की गयी थी। रिपोर्ट कहती है: "नेताओं के ऐसे चुनिंदा कार्य विवादित ढांचे के विध्‍वंस को पूरा करने के उन सबके भीतर छिपे के इरादों का खुलासा करते हैं रिपोर्ट का मानना है कि "राम कथा कुंज में मौजूद आंदोलन के प्रतीक ... तक बहुत ही आसानी से पहुंच कर ... विध्वंस को रोक सकते थे।"[21] विध्वंस में अग्रिम योजना बनाई गई संपादित करें पूर्व खुफिया ब्यूरो (आईबी) के संयुक्त निदेशक मलय कृष्ण धर ने 2005 की एक पुस्तक में दावा किया कि बाबरी मस्जिद विध्वंस की योजना 10 महीने पहले आरएसएस, भाजपा और विहिप के शीर्ष नेताओं द्वारा बनाई गई थी और इन लोगों ने इस मसले पर तत्कालीन प्रधानमंत्री पी.वी. नरसिंह राव द्वारा उठाये गए कदम पर सवाल उठाया था। धर ने दावा किया है कि भाजपा/संघ परिवार की एक महत्वपूर्ण बैठक की रिपोर्ट तैयार करने का प्रबंध करने का उन्हें निर्देश दिया गया था और उस बैठक ने "इस शक की गुंजाइश को परे कर दिया कि उनलोगों (आरएसएस, भाजपा, विहिप) ने आनेवाले महीने में हिंदुत्व हमले का खाका तैयार किया और दिसंबर 1992 में अयोध्या में 'प्रलय नृत्य' (विनाश का नृत्य) का निर्देशन किया।.. बैठक में मौजूद आरएसएस, भाजपा, विहिप और बजरंग दल के नेता काम को योजनाबद्ध रूप से अंजाम देने की बात पर आपसी सहमति से तैयार हो गए।" उनका दावा है कि बैठक के टेप को उन्होंने व्यक्तिगत रूप से अपने बॉस के सुपुर्द किया, उन्होंने दृढ़तापूर्वक कहा कि उन्हें इसमें कोई शक नहीं है कि उनके बॉस ने उस टेप की सामग्री को प्रधानमंत्री (राव) और गृह मंत्री (एसबी चव्हाण) को दिखाया. लेखक ने दावा किया है कि यहां एक मूक समझौता हुआ था जिसमें अयोध्या ने उन्हें "राजनीतिक लाभ उठाने के लिए हिंदुत्व की लहर को शिखर पर पहुंचाने का एक अद्भुत अवसर" प्रदान किया।[3] लिब्रहान आयोग के निष्कर्ष संपादित करें न्यायमूर्ति मनमोहन सिंह लिब्राहन द्वारा लिखी गयी रिपोर्ट में मस्जिद के विध्वंस के लिए 68 लोगों को दोषी ठहराया गया है - इनमें ज्यादातर भाजपा के नेता और कुछ नौकरशाह हैं। रिपोर्ट में पूर्व भाजपा प्रधानमंत्री अटल बिहारी वाजपेयी और संसद में पार्टी के तत्कालीन (2009) नेता लालकृष्ण आडवाणी का नाम लिया गया हैं। कल्याण सिंह, जो मस्जिद विध्वंस के समय उत्तर प्रदेश के मुख्यमंत्री थे, की भी रिपोर्ट में कड़ी आलोचना की गयी। उन पर अयोध्या में ऐसे नौकरशाहों और पुलिस को तैनात करने का आरोप है, जो विध्वंस के दौरान मूक बन कर खड़े रहे.[22] लिब्रहान आयोग की रिपोर्ट में राजग सरकार में भूतपूर्व शिक्षा मंत्री मुरली मनोहर जोशी को भी विध्वंस में दोषी ठहराया गया है। एक भारतीय पुलिस अधिकारी अंजू गुप्ता अभियोजन गवाह के रूप में पेश की गयीं. विध्वंस के दिन वे आडवाणी की सुरक्षा प्रभारी थीं और उन्होंने खुलासा किया कि आडवाणी और मुरली मनोहर जोशी ने भड़ाकाऊ भाषण दिए.[23] लोकप्रिय संस्कृति में संपादित करें बांग्लादेशी लेखिका तसलीमा नसरीन द्वारा 1993 में लिखे गए विवादास्पद बांग्ला उपन्यास लज्जा में कहानी विध्वंस के बाद के दिनों पर आधारित है। इसके विमोचन के बाद लेखिका को उनके गृह देश में जान से मारने की धमकी मिली है और तब से वे निर्वासन में रह रही हैं। विध्वंस से उठे धुएं के परिणामस्वरूप घटनेवाली घटनाएं और दंगे बोम्बे (1995), दैवनामाथिल (2005) जैसी फिल्म की कहानी का महत्वपूर्ण हिस्सा रही हैं, दोनों फिल्मों को राष्ट्रीय एकता के लिए सर्वश्रेष्ठ फिल्म का संबंधित राष्ट्रीय फिल्म अवार्ड के दौरान नरगिस दत्त अवार्ड मिला; नसीम (1995), स्ट्राइकर (2010) और स्लमडॉग मिलियनेयर (2008) में भी इसका जिक्र था।